जिस्म की आग में दिल का क्या कुसूर

Discussion in 'Hindi Sex Stories' started by 007, Nov 3, 2017.

  1. 007

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    //krot-group.ru antarvasna वैसे तो संजय से मेरा रोज ही सोने से पहले एकाकार होता था। परन्‍तु वो पति-पत्नी वाला सम्भोग ही होता था।

    उस दिन मेरी शादी की 11वीं सालगिरह थी। संजय ने मुझे बड़ा सरप्राइज देने का वादा किया था। मैं बहुत उत्‍सुक थी। कई बार संजय से पूछ भी चुकी थी कि वो मुझे क्‍या सरप्राइज देने वाले हैं? पर वो भी तो पूरे जिद्दी थे। मेरी हर कोशिश बेकार हो रही थी।


    संजय ने बोल दिया था कि इस बार सालगिरह घर में ही मनायेंगे किसी बाहर के मेहमान को नहीं बुलायेंगे बस हम दोनों और हमारे दो बच्‍चे।

    मैं ब्‍यूटी पार्लर से फेशियल करवाकर बच्‍चों के आने से पहले घर पहुँच गई। हम मध्‍यम वर्गीय परिवारों की यही जिन्‍दगी होती है।

    मैंने शाम होने से पहले ही संजय के आदेशानुसार उनका मनपसंद खाना बनाकर रख दिया। बच्‍चे कालोनी के पार्क में खेलने के लिये चले गये। मैं खाली वक्‍त में अपनी शादी के एलबम उठाकर बीते खुशनुमा पलों को याद करने लगी। तभी दरवाजे पर घण्टी बजी और मेरी तंद्रा भंग हुई।

    मैं उठकर दरवाजा खोलने गई तो संजय दरवाजे पर थे। वो जैसे ही अन्‍दर दाखिल हुए, मैंने पूछा- आज छुट्टी जल्‍दी हो गई क्‍या?

    और मुड़कर संजय की तरफ देखा। पर यह क्‍या? संजय तो दरवाजे पर ही रुके खड़े थे।

    मैंने पूछा- अन्‍दर नहीं आओगे क्‍या?

    वो बोले- आऊँगा ना, पर पहले तुम एक रुमाल लेकर मेरे पास आओ दरवाजे पर।

    मेरे मना करने पर वो गुस्‍सा करने लगे। आखिर में हारना तो मुझे ही था, मैं रुमाल लेकर दरवाजे पर पहुँची।

    पर यह क्‍या उन्‍होंने तो रुमाल मेरे हाथ से लेकर मेरी आँखों पर बांध दिया, मुझे घर के अन्‍दर धकेलते हुए बोले- अन्दर चलो।

    अब मुझे गुस्‍सा आया- "मैं तो अन्‍दर ही थी, आप ही ने बाहर बुलाया और आँखें बंद करके घर में ले जा रहे हो. आज क्‍या इरादा है? मैंने कहा।"

    "हा..हा..हा..हा.." हंसते हुए संजय बोले 11 साल हो गये शादी को पर अभी तक तुमको मुझे पर यकीन नहीं है। वो मुझे धकेल कर अन्‍दर ले गये और बैडरूम में ले जाकर बंद कर दिया। मैं बहुत विस्मित सी थी कि पता नहीं इनको क्‍या हो गया है? आज ऐसी हरकत क्‍यों कर रहे हैं? क्‍योंकि स्‍वभाव से संजय बहुत ही सीधे सादे व्‍यक्ति हैं।

    अभी मैं यह विचार कर ही रही थी कि संजय दरवाजा खोलकर अंदर दाखिल हुए और आते ही मेरी आँखों की पट्टी खोल दी।

    मैंने पूछा, "यह क्‍या कर रहे हो आज?"

    संजय ने जवाब दिया, "तुम्‍हारे लिये सरप्राइज गिफ्ट लाया था यार, वो ही दिखाने ले जा रहा हूँ तुमको !"

    सुनकर मैं बहुत खुश हो गई, "कहाँ है..?" बोलती हुई मैं कमरे से बाहर निकली तो देखा ड्राइंग रूम में एक नई मेज और उस पर नया कम्‍प्‍यूटर रखा था। कम्‍प्‍यूटर देखकर मैं बहुत खुश हो गई क्‍योंकि एक तो आज के जमाने में यह बच्‍चों की जरूरत थी। दूसरा मैंने कभी अपने जीवन में कम्‍प्‍यूटर को इतने पास से नहीं देखा था। मेरा मायका तो गाँव में था, पढ़ाई भी वहीं के सरकारी स्‍कूल में हुई थी. और शादी के बाद शहर में आने के बाद भी घर से बाहर कभी ऐसा निकलना ही नहीं हुआ। हाँ, कभी कभार पड़ोस में रहने वाली मिन्‍नी को जरूर कम्‍प्‍यूटर पर काम करते या पिक्‍चर देखते हुए देखा था।

    पर संजय के लिये इसमें कुछ भी नया नहीं था, वो पिछले 15 साल से अपने आफिस में कम्‍प्‍यूटर पर ही काम करते थे। मुझे कई बार बोल चुके थे कि तुम कम्‍प्‍यूटर चलाना सीख लो पर मैं ही शायद लापरवाह थी। परन्‍तु आज घर में कम्‍प्‍यूटर देखकर मैं बहुत खुश थी। मैंने संजय से कहा- इसको चलाकर दिखाओ।

    उन्‍होंने कहा- रूको मेरी जान, अभी इसको सैट कर दूँ, फिर चला कर दिखाता हूँ।

    तभी बच्‍चे भी खेलकर आ गये और भूख-भूख चिल्‍लाने लगे। मैं तुरन्‍त रसोई में गई। तभी दोनों बच्‍चों का निगाह कम्‍प्‍यूटर पर पड़ी। दोनों खुशी से कूद पड़े, और संजय से कम्‍प्‍यूटर चलाने के जिद करने लगे। संजय ने बच्चों को कम्प्यूटर चला कर समझया और समय ऐसे ही हंसी-खुशी बीत गया। कब रात हो गई पता ही नहीं चला।

    मैं दोनों बच्‍चों को उनके कमरे में सुलाकर नहाने चली गई। संजय कम्‍प्‍यूटर पर ही थे।

    मैं नहाकर संजय का लाया हुआ सैक्‍सी सा नाइट सूट पहन कर बाहर आई क्‍योंकि मुझे आज रात को संजय के साथ शादी की सालगिरह जो मनानी थी, पर संजय कम्‍प्‍यूटर पर व्‍यस्‍त थे। मुझे देखते ही खींचकर अपनी गोदी में बैठा लिया, मेरे बालों में से शैम्‍पू की भीनी भीनी खुशबू आ रही थी, संजय उसको सूंघने लगे।

    उनका एक साथ कम्‍प्‍यूटर के माऊस पर और दूसरा मेरे गीले बदन पर घूम रहा था। मुझे उनका हर तरह हाथ फिराना बहुत अच्‍छा लगता था। पर आज मेरा ध्‍यान कम्‍प्‍यूटर की तरफ ज्‍यादा था क्‍योंकि वो मेरे लिये एक सपने जैसा था।

    संजय ने कहा, "तुम चला कर देखो कम्‍प्‍यूटर !"

    "पर मुझे तो कम्‍प्‍यूटर का 'क' भी नहीं आता मैं कैसे चलाऊँ?" मैंने पूछा।

    संजय ने कहा, "चलो तुमको एक मस्‍त चीज दिखाता हूँ।" उनका बांया हाथ मेरी चिकनी जांघों पर चल रहा था। मुझे मीठी मीठी गुदगुदी हो रही थी। मैं उसका मजा ले रही थी कि मेरी निगाह कम्‍प्‍यूटर की स्‍क्रीन पर पड़ी। एक बहुत सुन्‍दर दुबली पतली लड़की बाथटब में नंगी नहा रही थी। लड़की की उम्र देखने में कोई 20 के आसपास लग रही थी। उसका गोरी चिट्टा बदन माहौल में गर्मी पैदा कर रहा था।

    साथ ही संजय मेरी जांघ पर गुदगुदी कर रहे थे।

    तभी उस स्‍क्रीन वाली लड़की के सामने एक लम्‍बा चौड़ा कोई 6 फुट का आदमी आकर खड़ा हुआ.

    आदमी का लिंग पूरी तरह से उत्‍तेजित दिखाई दे रहा था। लड़की ने हाथ बढ़ा का वो मोटा उत्‍तेजित लिंग पकड़ लिया.

    वो अपने मुलायम मुलायम हाथों से उसकी ऊपरी त्‍वचा को आगे पीछे करने लगी।

    मैं अक्‍सर यह सोचकर हैरान हो जाती कि इन फिल्‍मों में काम करने वाले पुरुषों का लिंग इतना मोटा और बड़ा कैसे होता है और वो 15-20 मिनट तक लगातार मैथुन कैसे करते रह सकते हैं।

    मैं उस दृश्‍य को लगातार निहार रही थी..

    उस लड़की की उंगलियाँ पूरी तरह से तने हुए लिंग पर बहुत प्‍यार से चल रही थी..

    आह..

    तभी मुझे अहसास हुआ कि मैं तो अपने पति की गोदी में बैठी हूँ ! उन्‍होंने मेरा बांया स्‍तन को बहुत जोर से दबाया जिसका परिणाम मेरे मुख से निकलने वाली 'आह..' थी।

    संजय मेरे नाइट सूट के आगे के बटन खोल चुके थे.. उनकी उंगलियाँ लगातार मेरे दोनों उभारों के उतार-चढ़ाव का अध्‍ययन करने में लगी हुई थी। मैंने पीछे मुड़कर संजय की तरफ देखा तो पाया कि उसके दोनों हाथ मेरे स्‍तनों से जरूर खेल रहे थे परन्‍तु उनकी निगाह भी सामने चल रहे कम्‍प्‍यूटर की स्‍क्रीन पर ही थी।

    संजय की निगाह का पीछा करते हुए मेरी निगाह भी फिर से उसी स्‍क्रीन की तरफ चली गई। वो खूबसूरत लड़की बाथटब से बाहर निकलकर टब के किनारे पर बैठी थी। पर ये क्‍या.. अब वो मोटा लिंग उस लड़की के मुँह के अन्‍दर जा चुका था, वो बहुत प्‍यार से अपने होठों को आगे-पीछे सरकाकर उस आदमी के लिंग को लॉलीपाप की तरह बहुत प्‍यार से चूस रही थी।

    मैंने महसूस किया कि नीचे मेरे नितम्‍बों में भी संजय का लिंग घुसने को तैयार था। वो पूरी तरह से उत्‍तेजित था।

    मैं खड़ी होकर संजय की तरफ घूम गई, संजय ने उठकर लाइट बंद कर दी और मेरा नाइट सूट उतार दिया।

    वैसे भी उस माहौल में बदन पर कपड़ों की जरूरत महसूस नहीं हो रही थी। मैंने कम्‍प्‍यूटर की स्‍क्रीन की रोशनी में देखा संजय भी अपने कपड़े उतार चुके थे। उनका लिंग पूरा तना हुआ था। उन्‍होंने मुझे पकड़ कर वहीं पड़े हुए सोफे पर लिटा दिया. वो बराबर में बैठकर मेरा स्‍तनपान कर रहे थे, मैं लगातार कम्‍प्‍यूटर पर चलने वाले चलचित्र को देख रही थी. और वही उत्‍तेजना अपने अन्‍दर महसूस भी कर रही थी।

    बाथटब पर बैठी हुई लड़की की दोनों टांगें खुल चुकी थी और वो आदमी उस लड़की की दोनों टांगों के बीच में बैठकर उस लड़की की योनि चाटने लगा। मुझे यह दृश्‍य, या यूँ कहूँ कि यह क्रिया बहुत पसन्‍द थी, पर संजय को नहीं। हालांकि संजय ने कभी कहा नहीं पर संजय से कभी ऐसा किया भी नहीं। इसीलिये मुझे ऐसा लगा कि शायद संजय को यह सब पसन्‍द नहीं है।

    वैसे तो संजय से मेरा रोज ही सोने से पहले एकाकार होता था। परन्‍तु वो पति-पत्नी वाला सम्भोग ही होता था, जो हमारे रोजमर्रा के कामकाज का ही एक हिस्‍सा था, उसमें कुछ भी नयापन नहीं था।

    पर जब उत्‍तेजना होती थी. अब वो भी अच्‍छा लगता था।

    अब तक संजय ने मेरी दोनों टांगें फैला ली थी परन्‍तु मेरी निगाह कम्‍प्‍यूटर की स्‍क्रीन से हट ही नहीं रही थी। इधर संजय का लिंग मेरी योनि में प्रवेश कर गया. तो मुझे. आह.. अहसास हुआ कि. मैं कितनी उत्‍तेजित हूँ..

    संजय मेरे ऊपर आकर लगातार धक्‍के लगा रहे थे.

    अब मेरा ध्‍यान कम्‍प्‍यूटर की स्‍क्रीन से हट चुका था.. और मैं अपनी कामक्रीड़ा में मग्‍न हो गई थी..

    तभी संजय के मुँह से 'आह..' निेकली और वो मेरे ऊपर ही ढेर हो गये।

    दो मिनट ऐसे ही पड़े रहने के बाद वो संजय ने मेरे ऊपर से उठकर अपना लिंग मेरी योनि से बाहर निकाला और बाथरूम में जाकर धोने लगे।

    तब तक भी उस स्‍क्रीन पर वो लड़की उस आदमी से अपनी योनि चटवा रही थी 'उफ़्फ़. हम्मंह.' की आवाज लगातार उस लड़की के मुँह से निकल रही थी वो जोर जोर से कूद कूद कर अपनी योनि उस आदमी के मुँह में डालने का प्रयास कर रही थी। तभी संजय आये और उन्‍होंने कम्‍प्‍यूटर बंद कर दिया।
    मैंने बोला, "चलने दो थोड़ी देर?"

    संजय ने कहा, "कल सुबह ऑफिस जाना है बाबू. सो जाते हैं, नहीं तो लेट हो जाऊँगा।"

    अब यह कहने कि हिम्‍मत तो मुझमें भी नहीं थी कि 'आफिस तो तुमको जाना है ना तो मुझे देखने दो।' मैं एक अच्‍छी आदर्शवादी पत्नी की तरह आज्ञा का पालन करने के लिये उठी, बाथरूम में जाकर रगड़-रगड़ कर अपनी योनि को धोया, बाहर आकर अपना नाइट सूट पहना और बैडरूम में जाकर बिस्‍तर पर लेट गई।

    मैंने थोड़ी देर बाद संजय की तरफ मुड़कर देखा वो बहुत गहरी नींद में सो रहे थे। उत्‍सुकतावश मेरी निगाह नीचे उसके लिंग की तरफ गई तो पाया कि शायद वो भी नाइट सूट के पजामे के अन्‍दर शान्‍ति से सो रहा था क्‍योंकि वहाँ कोई हलचल नहीं थी। मेरी आँखों के सामने अभी भी वही फिल्‍म घूम रही थी। शादी के बाद पिछले 11 सालों में केवल 3 बार संजय के साथ मैंने ऐसी फिल्‍म देखी, पता नहीं ऐसा मेरे साथ ही था, या सभी के साथ होता होगा पर उस फिल्‍म को देखकर मुझे अपने अन्‍दर अति उत्‍तेजना महसूस हो रही थी।

    हालांकि थोड़ी देर पहले संजय के साथ किये गये सैक्‍स ने मुझे स्खलित कर दिया था। पर फिर भी शरीर में कहीं कुछ अधूरापन महसूस हो रहा था मुझे पता था यह हर बार की तरह इस बार भी दो-तीन दिन ही रहेगा पर फिर भी अधूरापन तो था ही ना..

    वैसे तो जिस दिन से मेरी शादी हुई थी उस दिन से लेकर आज तक मासिक के दिनों के अलावा कुछ गिने-चुने दिनों को छोड़कर हम लोग शायद रोज ही सैक्‍स करते थे यह हमारे दैनिक जीवन का हिस्‍सा बन चुका था। पर चूंकि संजय ने कभी मेरी योनि को प्‍यार नहीं किया तो मैं भी एक शर्मीली नारी बनी रही, मैंने भी कभी संजय के लिंग को प्‍यार नहीं किया। मुझे लगता था कि अपनी तरफ से ऐसी पहल करने पर संजय मुझे चरित्रहीन ना समझ लें।

    सच तो यह है कि पिछले 11 सालों में मैंने संजय का लिंग हजारों बार अपने अंदर लिया था पर आज तक मैं उसका सही रंग भी नहीं जानती थी. क्‍योंकि सैक्‍स करते समय संजय हमेशा लाइट बंद कर देते थे और मेरे ऊपर आ जाते थे। मैंने तो कभी रोशनी में आज तक संजय को नंगा भी नहीं देखा था। मुझे लगता है कि हम भारतीय नारियों में से अधिकतर ऐसी ही जिन्‍दगी जीती हैं. और अपने इसी जीवन से सन्‍तुष्‍ट भी हैं। परन्‍तु कभी कभी इक्‍का-दुक्‍का बार जब कभी ऐसा कोई दृश्‍य आ सामने जाता है जैसे आज मेरे सामने कम्‍प्‍यूटर स्‍क्रीन पर आ गया था तो जीवन में कुछ अधूरापन सा लगने लगता है जिसको सहज करने में 2-3 दिन लग ही जाते हैं।

    हम औरतें फिर से अपने घरेलू जीवन में खो जाती हैं और धीरे-धीरे सब कुछ सामान्‍य हो जाता है। फिर भी हम अपने जीवन से सन्‍तुष्‍ट ही होती हैं। क्‍योंकि हमारा पहला धर्म पति की सेवा करना और पति की इच्‍छाओं को पूरा करना है। यदि हम पति को सन्‍तुष्‍ट नहीं कर पाती हैं तो शायद यही हमारे जीवन की सबसे बड़ी कमी है।

    परन्‍तु मैं संजय को उनकी इच्‍छाओं के हिसाब से पूरी तरह से सन्‍तुष्‍ट करने का प्रयास करती थी। यही सब सोचते सोचते मैंने आँखें बंद करके सोने का प्रयास किया। सुबह बच्‍चों को स्‍कूल भी तो भेजना था और संजय से कम्‍प्‍यूटर चलाना भी सीखना था। परन्‍तु जैसे ही मैंने आँखें बन्‍द की मेरी आँखों के सामने फिर से वही कम्‍प्‍यूटर स्‍क्रीन वाली लड़की और उसके मुँह में खेलता हुआ लिंग आ गया। मैं जितना उसको भूलने का प्रयास करती उतना ही वो मेरी नींद उड़ा देता।

    मैं बहुत परेशान थी, आँखों में नींद का कोई नाम ही नहीं था। पूरे बदन में बहुत बेचैनी थी जब बहुत देर तक कोशिश करने पर भी मुझे नींद नहीं आई तो मैं उठकर बाथरूम में गई नाइट सूट उतारा और शावर चला दिया। पानी की बूंद बूंद मेरे बदन पर पड़ने का अहसास दिला रही थी। उस समय शावर आ पानी मुझे बहुत अच्‍छा लग रहा था। का‍फी देर तक मैं वहीं खड़ी भीगती रही और फिर शावर बन्‍द करके बिना बदन से पानी पोंछे ही गीले बदन पर ही नाइट सूट पहन कर जाकर बिस्‍तर में लेट गई।

    इस बार बिस्‍तर में लेटते ही मुझे नींद आ गई।

    सुबह 6 बजे रोज की तरह मेरे मोबाइल में अलार्म बजा। मैं उठी और बच्‍चों को जगाकर हमेशा की तरह समय पर तैयार करके स्‍कूल भेज दिया। अब बारी संजय को जगाने की थी। संजय से आज कम्‍प्‍यूटर चलाना भी तो सीखना था ना। मैं चाहती थी कि संजय मुझे वो फिल्‍म चलाना सिखा दें ताकि संजय के जाने के बाद मैं आराम से बैठकर उस फिल्‍म का लुत्‍फ उठा सकूँ। पर संजय से कैसे कहूँ से समझ नहीं आ रहा था।

    खैर, मैंने संजय को जगाया और सुबह की चाय की प्याली उनके हाथ में रख दी। वो चाय पीकर टॉयलेट चले गये और मैं सोचने लगी कि संजय से कैसे कहूँ कि मुझे वो कम्प्यूटर में फिल्‍म चलाना सिखा दें।

    तभी मेरे दिमाग में एक आइडिया आया। मैं संजय के टॉयलेट से निकलने का इंतजार करने लगी। जैसे ही संजय टायलेट से बाहर आये मैंने अपनी योजना के अनुसार अपनी शादी वाली सी डी उनके हाथ में रख दी और कहा, "शादी के 11 साल बाद तो कम से कम अपने नये कम्‍प्‍यूटर में यह सी डी चला दो, मैं तुम्‍हारे पीछे अपने बीते लम्‍हे याद कर लूँगी।"

    संजय एकदम मान गये और कम्‍प्‍यूटर की तरफ चल दिये।

    मैंने कहा, "मुझे बताओ कि इसको कैसे ऑन और कैसे ऑफ करते हैं ताकि मैं सीख भी जाऊँ।"

    संजय को इस पर कोई एतराज नहीं था। उन्‍होंने मुझे यू.पी.एस. ऑन करने से लेकर कम्‍प्‍यूटर के बूट होने के बाद आइकन पर क्लिक करने तक सब कुछ बताया, और बोले, "ये चार सी डी मैं इस कम्‍प्‍यूटर में ही कापी कर देता हूँ ताकि तुम इनको आराम से देख सको नहीं तो तुमको एक एक सी डी बदलनी पड़ेगी।"

    मैंने कहा, "ठीक है।"

    संजय ने सभी चारों सी डी कम्‍प्‍यूटर में एक फोल्‍डर बना कर कापी कर दी और फिर मुझे समझाने लगे कि कैसे मैं वो फोल्‍डर खोल कर सी डी चला सकती हूँ।

    मैं अपने हाथ से सब कुछ चलाना सीख रही थी। जैसे-जैसे संजय बता रहे थे 2-3 बार कोशिश करने पर मैं समझ गई कि फोल्‍डर में जाकर कैसे उस फिल्‍म को चलाया जा सकता है। पर मुझे यह नहीं पता था कि वो रात वाली फिल्‍म कौन से फोल्‍डर में है और वहाँ तक कैसे जायेंगे।

    मैंने फिर संजय से पूछा, "कहीं इसको चलाने से गलती से वो रात वाली फिल्‍म तो नहीं चल जायेगी।"

    "अरे नहीं पगली ! वो तो अलग फोल्‍डर में पड़ी है।" संजय ने कहा।

    "पक्‍का ना..?" मैंने फिर पूछा।

    तब संजय ने कम्‍प्‍यूटर में वो फोल्‍डर खोला जहाँ वो फिल्‍म पड़ी थी और मुझसे कहा, "यह देखो ! यहाँ पड़ी है वो फिल्‍म बस तुम दिन में यह फोल्‍डर मत खोलना।"

    मेरी तो जैसे लॉटरी लग गई थी। पर मैंने शान्‍त स्‍वभाव से बस, "हम्म.." जवाब दिया। मेरी निगाह उस फोल्‍डर में गई तो देखा यहाँ तो बहुत सारी फाइल पड़ी थी। मैंने संजय से पूछा। तो उन्‍हानें ने बताया, "ये सभी ब्‍लू फिल्‍में हैं। आराम से रोज रात को देखा करेंगे।"

    "ओ.के.अब यह कम्‍प्‍यूटर बंद कैसे होगा.." मैंने पूछा क्‍योंकि मेरे लायक काम तो हो ही चुका था।

    संजय ने मुझे कम्‍प्‍यूटर शट डाउन करना भी सिखा दिया। मैं अब वहाँ से उठकर नहाने चली गई, और संजय भी आफिस के लिये तैयारी करने लगे। संजय को आफिस भेजने के बाद मैंने बहुत तेजी से अपने घर के सारे काम 1 घंटे में निपटा लिये। फ्री होकर बाहर का दरवाजा अन्‍दर से लॉक किया। कम्‍प्‍यूटर को संजय द्वारा बताई गई विधि के अनुसार ऑन किया। थोड़े से प्रयास के बाद ही मैंने अपनी शादी की फिल्‍म चला ली। कुछ देर तक वो देखने के बाद मैंने वो फिल्‍म बन्‍द की और अपने फ्लैट के सारे खिड़की दरवाजे चैक किये कि कोई खिड़की खुली हुई तो नहीं है। सबसे सन्‍तुष्‍ट होकर मैंने संजय का वो खास वाला फोल्‍डर खोला और उसमें गिनना शुरू किया कुल मिलाकर 80 फाइल उसके अन्‍दर पड़ी थी। मैंने बीच में से ही एक फाइल पर क्‍लिक कर दिया। क्लिक करते ही एक मैसेज आया। उसको ओ.के. किया तो फिल्‍म चालू हो गई। पहला दृश्‍य देखकर ही मैं चौंक गई। यह कल रात वाली मूवी नहीं थी। इसमें दो लड़कियाँ एक दूसरे को बिल्‍कुल नंगी लिपटी हुई थी।

    यह देखकर तो एकदम जैसे मुझे सन्निपात हो गया !

    ऐसा मैंने पतिदेव के मुँह से कई बार सुना तो था.. पर देखा तो कभी नहीं था। तभी मैंने देखा दोनों एक दूसरे से लिपटी हुई प्रणय क्रिया में लिप्‍त थी।

    एक लड़की नीचे लेटी हुई थी.. और दूसरी उसके बिल्‍कुल ऊपर उल्‍टी दिशा में। दोनों एक दूसरे की योनि का रसपान कर रही थी.

    मैं आँखें गड़ाये काफी देर तक उन दोनों को इस क्रिया को देखती रही। स्‍पीकर से लगातार आहहह. उहह. हम्मम. सीईईईई.. की आवाजें आ रही थी। मध्‍यम मध्‍यम संगीत की ध्‍वनि माहौल को और अधिक मादक बना रही थी। मुझे भी अपने अन्दर कुछ कुछ उत्‍तेजना महसूस होने लगी थी। परन्‍तु संस्‍कारों की शर्म कहूँ या खुद पर कन्‍ट्रोल. पर मैंने उस उत्‍तेजना को अभी तक अपने ऊपर हावी नहीं होने दिया। परन्‍तु मेरी निगाहें उन दोनों लड़कियों की भावभंगिमा को अपने लगातार अंदर संजो रही थी।

    अचानक ऊपर वाली लड़की ने पहलू बदला नीचे वाली नीचे आकर बैठ गई। उसने नीचे वाली लड़की की टांगों में अपनी टांगें फंसा ली !

    "हम्म्मम.!" की आवाज के साथ नीचे वाली लड़की भी उसका साथ दे रही थी..आह.. दोनों लड़कियाँ आपस में एक दूसरे से अपनी योनि रगड़ रही थी।

    ऊफ़्फ़..!! मेरी उत्‍तेजना भी लगातार बढ़ने लगी। परन्‍तु मेरी समझ में नहीं आ रहा था कि मैं क्‍या करूँ? कैसे खुद को सन्‍तुष्‍ट करूँ? मुझे बहुत परेशानी होने लगी। वो दोनों लड़कियाँ लगातार योनि मर्दन कर रही थी। मुझे मेरी योनि में बहुत खुजली महसूस हो रही थी। ऐसा लग रहा था जैसे मेरी योनि के अन्‍दर बहुत सारी चींटियों ने हमला कर दिया हो..योनि के अन्‍दर का सारा खून चूस रही हों. मैंने महसूस किया कि मेरे चुचूक बहुत कड़े हो गये हैं। मुझे बहुत ज्‍यादा गर्मी लगने लगी। शरीर से पसीना निकलने लगा।

    मेरा मन हुआ कि अभी अपने कपड़े निकाल दूं। परन्‍तु यह काम मैंने अपने जीवन में पहले कभी नहीं किया था इसीलिये शायद हिम्‍मत नहीं कर पा रही थी मेरी निगाहें उस स्‍क्रीन हटने को तैयार नहीं थी। मेरे बदन की तपिश पर मेरा वश नहीं था। तापमान बहुत तेजी से बढ़ रहा था। जब मुझसे बर्दाश्‍त नहीं हुआ। तो मैंने अपनी साड़ी निकाल दी। योनि के अन्‍दर इतनी खुजली होने लगी। ऊईईईई..मन ऐसा हो रहा था कि चाकू लेकर पूरी योनि को अन्‍दर से खुरच दूं।
    तभी स्‍क्रीन पर कुछ परिवर्तन हुआ, पहली वाली लड़की अलग हुई, उसने पास रखी मेज की दराज खोलकर पता नहीं प्‍लास्टिक या किसी और पदार्थ का बना लचीला कृत्रिम लिंग जैसा बड़ा सा सम्‍भोग यन्‍त्र निकाला और पास ही रखी क्रीम लगाकर उसको चिकना करने लगी।

    "ओह.!" सम्भोग के लिए ऐसी चीज मैंने पहले कभी नहीं देखी थी. पर मुझे वो नकली लिंग बहुत ही अच्‍छा लग रहा था। जब तक वो लड़की उसको चिकना कर रही थी तब तक मैं भी अपना ब्‍लाउज और ब्रा उतार कर फेंक चुकी थी। मुझे पता था कि घर में इस समय मेरे अलावा कोई और नहीं है इसीलिये शायद मेरी शर्म भी कुछ कम होने लगी थी।

    तभी मैंने देखा कि पहली लड़की से उस सम्‍भोग यन्‍त्र का अग्र भाग बहुत प्‍यार से दूसरी लड़की की योनि में सरकाना शुरू कर दिया। आधे से कुछ कम परन्‍तु वास्‍तविक लिंग के अनुपात में कहीं अधिक वह सम्‍भोग यन्‍त्र पहली वाली लड़की के सम्‍भोग द्वार में प्रवेश कर चुका था। मैंने इधर उधर झांककर देखा कि कोई देख तो नहीं रहा. और खुद ही अपने बायें हाथ से अपनी योनि को दबा दिया। "आह.." मेरे मुँह से सीत्‍कार निकली।

    मेरी निगाह कम्‍प्‍यूटर की स्‍क्रीन पर गई, 'उफफफफ.' मेरी तो हालत ही खराब होने लगी। पहली लड़की दूसरी लड़की के सम्‍भोग द्वार में वो सम्‍भोग यन्‍त्र बहुत प्‍यार से आगे पीछे सरका रही थी. दूसरी लड़की भी चूतड़ उछाल-उछाल कर अपने कामोन्‍माद का परिचय दे रही थी, वह उस यन्‍त्र को पूरा अपने अन्‍दर लेने को आतुर थी। परन्‍तु पहले वाले लड़की भी पूरी शरारती थी, अब वो भी दूसरी के ऊपर आ गई और उस यन्‍त्र का दूसरी सिरा अपनी योनि में सरका लिया। "ऊफफफफफ.." क्‍या नजारा था। दोनों एक दूसरे के साथ सम्‍भोगरत थी। अब दोनों अपने अपने चूतड़ उचका उचका कर अपना अपना योगदान दे रही थी।

    सीईईई..शायद कोई भी लड़की दूसरी से कम नहीं रहना चा‍हती थी.

    इधर मेरी योनि के अन्‍दर कीड़े चलते महसूस हो रहे थे। मैंने मजबूर होकर अपना पेटीकोट और पैंटी भी अपने बदन से अलग कर दी। अब मैं अपनी स्‍क्रीन के सामने आदमजात नंगी थी। मुझे ऐसा महसूस हो रहा था जैसे जीवन में पहली बार मैं ऐसे नंगी हुई हूँ। पर मेरी वासना, मेरी शर्म पर हावी होने लगी थी। मुझे इस समय अपनी योनि में लगी कामाग्नि को ठण्‍डा करने का कोई साधन चाहिए था बस..और कुछ नहीं..

    काश. उन लड़कियों वाला सम्‍भोग यन्‍त्र मेरे पास भी होता तो मैं उसको अपनी योनि में सरकाकर जोर जोर से धक्‍के मारती जब तक कि मेरी कामज्‍वाला शान्‍त नहीं हो जाती पर ऐसा कुछ नहीं हो सकता था। मैंने अपने दायें हाथ की दो उंगलियों से अपने भगोष्‍ठ तेजी से रगड़ने शुरू कर दिए। मेरी मदनमणि अपनी उपस्थिति का अहसास कराती हुई कड़ी होने लगी। जीवन में पहली बार था कि मुझे ये सब करना पड़ रहा था। पर मैं परिस्थिति के हाथों मजबूर थी।

    अब मेरे लिये कम्‍प्‍यूटर पर चलने वाली फिल्‍म का कोई मायने नहीं रह गया, मुझे तो बस अपनी आग को ठण्‍डा करना था। मुझे लग रहा था कि कहीं आज इस आग में मैं जल ही ना जाऊँ !

    11 साल से संजय मेरे साथ सम्‍भोग कर रहे थे. पर ऐसी आग मुझे कभी नहीं लगी थी. या यूँ कहूँ कि आग लगने से पहले ही संजय उसको बुझा देते थे। इसलिये मुझे कभी इसका एहसास ही नहीं हुआ। मैंने कम्‍प्‍यूटर बन्‍द कर दिया और घर में पागलों की तरह ऐसा कुछ खोजने लगी जिसको अपनी योनि के अन्‍दर डालकर योनि की खुजली खत्‍म कर सकूँ। मन्दिर के किनारे पर एक पुरानी मोमबत्‍ती मुझे दिखाई और तो मेरे लिये वही मेरा हथियार या कहिये कि मेरी मर्ज का इलाज बन गई।

    मैं मोमबत्‍ती को लेकर अपने बैडरूम में गई। मैंने देखा कि मेरे चुचूक बिल्‍कुल कड़े और लाल हो चुके थे।

    आह. कितना अच्‍छा लग रहा था इस समय अपने ही निप्‍पल को प्‍यार सहलाना !

    हम्म. मैंने अपने बिस्‍तर पर लेटकर मोमबत्‍ती का पीछे वाला हिस्‍सा अपने दायें हाथ में पकड़ा और अपने बायें हाथ से योनि के दोनों मोटे भगोष्‍ठों को अलग करके मोमबत्‍ती का अगला धागे वाला हिस्‍सा धीरे से अपनी योनि में सरकाना शुरू किया।

    उई मांऽऽऽऽऽ. क्‍या आनन्‍द था।

    मुझे यह असीम आनन्‍द जीवन में पहली बार अनुभव हो रहा था। मैं उन आनन्‍दमयी पलों का पूरा सुख भोगने लगी। मैंने मोमबत्‍ती का पीछे की सिरा पकड़ कर पूरी मोमबत्‍ती अपनी योनि में सरका दी थी.. आहह हह हह. अपने जीवन में इतना अधिक उत्‍तेजित मैंने खुद को कभी भी महसूस नहीं किया था।

    मैं कौन हूँ.? क्‍या हूँ.? कहाँ हूँ.? कैसे हूँ.? ये सब बातें मैं भूल चुकी थी। बस याद था तो यह कि किसी तरह अपने बदन में लगी इस कामाग्नि को बुझाऊँ बस. हम्म अम्म. आहह. क्‍या नैसर्गिक आनन्‍द था।

    बायें हाथ से एक एक मैं अपने दोनों निप्‍पल को सहला रही थी.. आईई ई. एकदम स्‍वर्गानुभव. और दायें हाथ में मोमबत्‍ती मेरे लिये लिंग का काम कर रही थी।

    मुझे पुरूष देह की आवश्‍यकता महसूस होने लगी थी। काश: इस समय कोई पुरूष मेरे पास होता जो आकर मुझे निचोड़ देता.. मेरा रोम रोम आनन्दित कर देता.. मैं तो सच्‍ची धन्‍य ही हो जाती।

    मेरा दायें हाथ अब खुद-ब-खुद तेजी से चलने लगा था। आहह हह. उफ़्फ़फ. उईई ई. की मिश्रित ध्‍वनि मेरे कंठ से निकल रही थी। मैं नितम्‍बों को ऊपर उठा-उठा कर दायें हाथ के साथ.ऽऽऽ. ताल.ऽऽऽ.. मिलाने..का..प्रयास.ऽऽऽऽ.. करने लगी।

    थोड़े से संघर्ष के बाद ही मेरी धारा बह निकली, मुझे विजय का अहसास दिलाने लगी।

    मैंने मोमबत्‍ती योनि से बाहर निकाली, देखा पूरी मोमबत्‍ती मेरे कामरस गीली हो चुकी थी। मोमबत्‍ती को किनारे रखकर मैं वहीं बिस्‍तर पर लेट गई। मुझे तो पता भी नहीं चला कब निद्रा रानी ने मुझे अपनी आगोश में ले लिया।
    दरवाजे पर घंटी की आवाज से मेरी निद्रा भंग की। घंटी की आवाज के साथ मेरी आँख झटके से खुली। मैं नग्‍नावस्‍था में अपने बिस्‍तर पर पड़ी थी। खुद को इस अवस्‍था में देखकर मुझे बहुत लज्‍जा महसूस हो रही थी। धीरे धीरे सुबह की पूरी घटना मेरे सामने फिल्‍म की तरह चलने लगी। मैं खुद पर बहुत शर्मिन्‍दा थी। दरवाजे पर घंटी लगातार बज रही थी। मैं समझ गई कि बच्‍चे स्‍कूल से आ गये हैं।

    मैं सब कुछ भूल कर बिस्‍तर से उठी, कपड़े पहनकर तेजी से दरवाजे की ओर भागी।

    दरवाजा खोला तो बच्‍चे मुझ पर चिल्‍लाने लगे। मुझे अपनी गलती का अहसास हुआ। आज तो लंच भी नहीं बनाया अभी तक घर की सफाई भी नहीं की।

    मैं बच्‍चों के कपड़े बदलकर तेजी से रसोई में जाकर कुछ खाने के लिये बनाने लगी। घर में काम इतना ज्‍यादा था कि सुबह वाली सारी बात मैं भूल चुकी थी।

    शाम को संजय ने आते ही पूछा- आज शादी वाली सीडी देखी थी क्‍या?

    तो मैंने जवाब दिया, "हाँ, पर पूरी नहीं देख पाई।"

    समय कैसे बीत रहा था पता ही नहीं चला। रात को बच्‍चों को सुलाने के बाद मैं अपने बैडरूम में पहुँची तो संजय मेरा इंतजार कर रहे थे। वही रोज वाला खेल शुरू हुआ।

    संजय ने मुझे दो-चार चुम्‍बन किये और अपना लिंग मेरी योनि में डालकर धक्‍के लगाने शुरू कर दिये। मैं भी आदर्श भारतीय पत्नी की तरह वो सब करवाकर दूसरी तरफ मुँह करके सोने का नाटक करने लगी। नींद मेरी आँखों से कोसों दूर थी। आज मैं संजय से कुछ बातें करना चाह रही थी पर शायद मेरी हिम्‍मत नहीं थी, मेरी सभ्‍यता और लज्‍जा इसके आड़े आ रही थी।

    थोड़ी देर बाद मैंने संजय की तरफ मुँह किया तो पाया कि संजय सो चुके थे। मैं भी अब सोने की कोशिश करने लगी। पता नहीं कब मुझे नींद आई।

    अगले दिन सुबह फिर से वही रोज वाली दिनचर्या शुरू हो गई। परन्‍तु अब मेरी दिनचर्या में थोड़ा सा परिवर्तन आ चुका था। संजय के जाने के बाद मैं रोज कोई एक फिल्‍म जरूर देखती. अपने हाथों से ही अपने निप्‍पल और योनि को सहलाती निचोड़ती। धीरे धीरे मैं इसकी आदी हो गई थी। हाँ, अब मैं कम्‍प्‍यूटर भी अच्‍छे से चलाना सीख गई थी।

    एक दिन संजय ने मुझसे कहा कि मैं इंटरनैट चलाना सीख लूँ तो वो मुझे आई डी बना देंगे जिससे मैं चैट कर सकूँ और अपने नये नये दोस्‍त बना सकूँगी। फिर भविष्‍य में बच्‍चों को भी कम्‍प्‍यूटर सीखने में आसानी होगी।

    उन्‍होंने मुझे पास के एक कम्‍प्‍यूटर इंस्‍टीट्यूट में इंटरनैट की क्‍लास चालू करा दी। आठ-दस दिन में ही मैंने गूगल पर बहुत सी चीजें सर्च करना और आई डी बनाना भी सीख लिया। मैंने जीमेल और फेसबुक पर में अपनी तीन-चार अलग अलग नाम से आई डी भी बना ली। एक महीने में तो मुझे फेक आई डी बनाकर मस्‍त चैट करना भी आ गया।

    परन्‍तु मैंने अपनी सीमाओं का हमेशा ध्‍यान रखा। अपनी पर्सनल आई डी के अलावा संजय को कुछ भी नहीं बताया। उसमें फ्रैन्‍डस भी बस मेरी सहेलियाँ ही थीं। मैं उस आई डी को खोलती तो रोज थी पर ज्‍यादा लोगों को नहीं जोड़ती थी। अपनी सभ्‍यता हमेशा कायम रखने की कोशिश करती थी। इंटरनेट प्रयोग करते करते मुझे कम से कम इतना हो पता चल ही गया था कि फेक आई डी बना कर मस्‍ती करने में कोई भी परेशानी नहीं है, बस कुछ खास बातों का ध्‍यान रखना चाहिए। ऐसे ही चैट करते करते एक दिन मेरी आई डी पर अरूण की रिक्‍वेस्‍ट आई। मैंने उनका प्रोफाइल देखा कही भी कुछ गंदा नहीं था। बिल्‍कुल साफ सुथरा प्रोफाइल। मैंने उनको एैड कर लिया।

    2 दिन बाद जब मैं चैट कर रही थी। तो अरूण भी आनलाइन आये। बातचीत शुरू हुई। उन्‍होंने बिना लाग-लपेट के बता दिया कि वो पुरूष हैं, शादीशुदा है और 38 साल के हैं। ज्‍यादातर पुरूष अपने बारे में पूरी और सही जानकारी नहीं देते थे इसीलिये उनकी सच्‍चाई जानकर अच्‍छा लगा। मैंने भी उनको अपने बारे में नाम, पता छोड़कर सब कुछ सही सही बता दिया।

    धीरे धीरे हमारी चैट रोज ही होने लगी। मुझे उनसे चैट करना अच्‍छा लगता था। क्‍योंकि एक तो वो कभी कोई व्‍यक्तिगत बात नहीं पूछते. दूसरे वो कभी भी कोई गन्‍दी चैट नहीं करते क्‍योंकि वो भी विवाहित थे और मैं भी। तो हमारी सभी बातें भी धीरे-धीरे उसी दायरे में सिमटने लगी। मैंने उनको कैम पर देखने का आग्रह किया तो झट ने उन्‍होंने ने भी मुझसे कैम पर आने को बोल दिया।

    मैंने उनको पहले आने का अनुरोध किया तो वो मान गये, उन्‍होंने अपना कैम ऑन किया। मैंने देखा उनकी आयु 35 के आसपास थी। मतलब वो मुझसे 2-3 साल ही बड़े थे। उनको कैम पर देखकर सन्‍तुष्‍ट होने के बाद मैंने भी अपना कैम ऑन कर दिया। वो मुझे देखते ही बोले, "तुम तो बिल्‍कुल मेरे ही एज ग्रुप की हो। चलो अच्‍छा है हमारी दोस्‍ती अच्छी निभेगी।"

    धीरे धीरे मेरी उनके अलावा लगभग सभी फालतू की चैट करने वालों से चैट बन्‍द हो गई। हम दोनों निश्चित समय पर एक दूसरे के इंतजार करने लगे। वो कभी कभी हल्‍का-फुल्‍का सैक्‍सी हंसी मजाक करते.. जो मुझे भी अच्‍छा लगता। हाँ उन्‍होंने कभी भी मेरा शोषण करने का प्रयास नहीं किया। अगर कभी किसी बात पर मैं नाराज भी हो जाती तो वो बहुत प्‍यार से मुझे मनाते। हाँ वो कोई हीरो नहीं थे। परन्‍तु एक सर्वगुण सम्‍पन्‍न पुरूष थे।

    एक दिन उन्‍होंने मुझसे फोन पर बात करने को कहा तो मैंने मना कर दिया। उन्‍होंने बिल्‍कुल भी बुरा नहीं माना। पर जब मैं चैट खत्‍म करने लगी तो उन्‍होने स्‍क्रीन पर अपना नम्‍बर लिख दिया. और मुझसे बोले, "कभी भी मुझसे बात करने का मन हो या एक दोस्‍त की जरूरत महसूस हो तो इस नम्‍बर पर फोन कर लेना पर मुझे अभी बात करने की कोई जल्‍दी भी नहीं है।"

    मैंने उनका नम्‍बर अपने मोबाइल में सेव कर लिया। वो बात उस दिन आई गई हो गई। उसके बाद हम फिर से रोज की तरह चैट करने लगी।

    एक दिन जब मेरा नैट पैक खत्‍म हो गया। मैं तीन दिन लगातार संजय बोलती रही। पर उन्‍होंने लापरवाही की और रीचार्ज नहीं करवाया। मुझे रोज अरूण से चैट करने की लत लग गई थी। अब मुझे बेचैनी रहने लगी। एक दिन मजबूर होकर अरूण को फोन करने की बात सोची पर 'पता नहीं कौन होगा फोन पर' यह सोच कर मैंने अपने मोबाइल से अरूण को मिस काल दिया। तुरन्‍त ही उधर से फोन आया। मैंने फोन उठाकर बात करनी शुरू की।

    अरूण- हैल्‍लो !

    मैं- हैल्‍लो !

    अरूण- कौन?

    मैं- कुसुम !

    अरूण- कौन?

    मैं- अच्‍छा जी, 4 दिन चैट नहीं की तो मुझे भूल गये।

    अरूण- ओह, तो तुम्‍हारा असली नाम कुसुम है पर तुमने तो अपनी आई डी मीरा के नाम से बनाई है और वहाँ अपना नाम भी मीरा ही बताया था।

    मुझे तुरन्‍त अपनी गलती का अहसास हुआ पर क्‍या हो सकता था अब तो तीर कमान से निकल चुका था।

    मैं- वो मेरी नकली आई डी है।

    अरूण- ओह, नकली आई डी? और क्‍या क्‍या नकली है तुम्‍हारा?

    मुझे उनकी बात सुन कर गुस्‍सा आ गया।

    मैं- जी और कुछ नकली नहीं है। लगता है आपको मुझ पर यकीन ही नहीं है।

    अरूण- अभी तुमने ही कहा कि आई डी नकली है, और रही यकीन की बात तो अगर यकीन ना होता हो हम इतने दिनों तक एक दूसरे से बात ही ना करते। चैट पर तो लोग 4 दिन बात करते दोस्‍तों को भूल जाते हैं। पर मैं हमेशा दोस्‍ती निभाता हूँ और निभाने वालों को ही पसन्‍द भी करता हूँ।

    मैं- अच्‍छा जी ! मेरे जैसी कितनी से दोस्‍ती निभा रहे हो आजकल आप?

    अरूण- चैट तो दो से होती है पर दोनों ही तुम जैसे अच्‍छी पारिवारिक महिला हैं। क्‍योंकि अब हम इस उम्र में नहीं है कि बचकानी बातें कर सकें। तो मैच्‍योर लोगों से ही मैच्‍योर दोस्‍ती करनी चाहिए।

    मैं अरूण की सत्‍यवादिता की कायल थी फिर भी मैंने और जानकारी लेनी शुरू की।

    मैं- अच्‍छा, यह बताओ आपने अपने जीवन में कितनी महिलाओं से यौन सम्‍बन्‍ध बनाया है?

    अरूण ने सीधे सीधे जवाब दिया- सात के साथ ! 3 शादी से पहले और 4 शादी के बाद। परन्‍तु मैंने आजतक किसी का ना तो शोषण करना ठीक समझा और ना ही किसी से सम्‍बन्‍धों का गलत प्रयोग करने की कोशिश की। हाँ मैंने कभी भी पैसे देकर या लेकर सम्‍बन्‍ध नहीं बनाया। क्‍योंकि मैं मानता हूँ सैक्‍स प्‍यार का ही एक हिस्‍सा है और जिसको आप जानते नहीं जिसके लिये आपके दिल में प्‍यार नहीं है उसके साथ सैक्‍स नहीं करना चाहिए।

    मैं पूरी तरह उनसे सन्‍तुष्‍ट थी। अब हम इसी तरह हम रोज अब मोबाइल पर बातें करने लगे। कभी कभी फोन सैक्‍स भी करते।

    एक दिन अरूण ने मुझे बताया कि उनकी मीटिंग है और वो तीन दिन बाद दिल्‍ली आ रहे हैं।

    मैंने पूछा, "मीटिंग किस समय खत्‍म होगी?"

    उन्‍होंने जवाब दिया, "मीटिंग को 4 बजे तक खत्‍म हो जायेगी। पर मेरी वापसी की ट्रेन रात को 11 बजे है तो मैं शाम को तुमसे मिलना चाहता हूँ। कहीं भी किसी कॉफी शाप में बैठेंगे, एक घंटा और एक दूसरे से मीठी-मीठी बातें करेंगे। क्‍या तुम बुधवार शाम को चार से पांच का टाइम निकाल सकती हो मेरे लिये?"

    मैंने हंसते हुए कहा, "यह भी पूछने की बात है क्‍या? मैं तो हमेशा से आपने मिलना चाहती थी पर आप सिर्फ़ एक घंटा मेरे लिये निकालोगे, यह मुझे नहीं पता था।"

    उन्‍होंने कहा, "तुम घरेलू औरत हो और ज्‍यादा घर से बाहर भी नहीं जाती हो, मैं तो ज्‍यादा समय निकाल लूंगा पर तुम बताओ क्‍या घर से निकल पाओगी..? और क्‍या बोलकर निकलोगी?"

    अब तो मेरी बोलती ही बंद हो गई। बात तो उनकी सही थी। शायद मैं ही पागल थी जो ये सब नहीं सोच पाई थी। पर मैं उनकी सोच का दाद दे रही थी। कितना सोचते हैं अरूण मेरे बारे में ना?

    हम रोज बात करते और बस उस एक घंटा मिलने की ही प्‍लानिंग करने लगे। आखिर इंतजार की घड़ी समाप्‍त हुई और बुधवार भी आ ही गया। संजय के जाते ही मैंने अरूण के मोबाइल पर फोन किया। तो उन्‍होंने कहा, "बस एक घंटे में गाड़ी दिल्‍ली स्‍टेशन पर पहुँच जायेगी. और हाँ, अभी फोन मत करना मेरे साथ और लोग भी हैं हम तुरन्‍त मीटिंग में जायेंगे। मीटिंग खत्‍म करके मैं उनसे अलग हो जाऊँगा. फिर 4 बजे के आसपास मैं तुमको फोन करूँगा।"

    मेरे पास बहुत समय था। मैंने पहले खुद ही अपना फेशियल किया। मेनिक्‍योर, पेडिक्‍योर करके मैंने खुद को संवारना शुरू किया। शाम को 4 बजे मुझे अरूण से पहली बार मिलना था. मैं बहुत उत्‍साहित थी. मैं चाहती थी कि मेरी पहली छाप ही उन पर जबरदस्‍त हो.. अपने मैकअप किट से वीट क्रीम निकालकर वैक्सिंग भी कर डाली.. नहा धोकर फ्रैश हुई, अपने लिये नई साड़ी निकाली, फिर सोचा कि अभी तैयार नहीं होती शाम को ही हो जाऊँगी. अगर अभी तैयार हुई तो शाम तक तो साड़ी खराब हो जायेगी। मैंने फिर से नाइट गाऊन ही पहन लिया।

    अब मैं शाम होने का इंतजार करने लगी। समय काटे नहीं कट रहा था.मैंने फिर से कम्‍प्‍यूटर चला कर वही पोर्न मूवी चला ली। पर आज मेरा मन उसमें भी नहीं लग रहा था। मेरे मन में अजीब सा उत्‍साह था।

    शादी से पहले जब संजय मुझे देखने आये थे. तब तो मैं बिल्‍कुल अल्‍हड़ थी, इतना उत्‍साहित तो तब भी नहीं थी मैं..

    मैं अपने बैड पर बैठकर विचार करने लगी, अरूण से मिलकर एक घंटे में क्‍या क्‍या बातें करूँगी? कैसे उनके साथ बैठूँगी, कैसे वो मुझसे बात करेंगे आदि आदि।

    मुझे पता ही नहीं लगा ये सब सोचते सोचते कब मेरी आँख लग गई।

    दरवाजे पर घंटी बजी. तो मेरी आँख खुली मैंने घड़ी में समय देखा। बच्‍चों के आने का टाइम हो चुका था। मैंने तुरन्‍त उठकर दरवाजा खोला। बच्‍चों को ड्रैस चेंज करवा कर खाना खिलाना, होमवर्क करवाना फिर ट्यूशन भेजना बस टाइम का पता ही नहीं चला कैसे तीन बज भी गये।

    बच्‍चों को ट्यूशन भेजकर मैं तैयार होने लगी। अरूण के फोन का भी इंतजार था. अभी मैं पेटीकोट ही पहन रही थी कि दरवाजे पर घंटी बजी.

    "इस समय कौन होगा?" मैं सोचने लगी।

    घंटी दोबारा बजी तो मैंने फिर से नाइट गाउन पहना और दरवाजा खोलने गई।

    दरवाजा खोला तो देखा बाहर संजय खड़े थे। मैं उनको 3 बजे दरवाजे पर देखकर चौंक गई।

    वो अन्‍दर आये तो मैंने पूछा, "क्‍या हुआ? आप इस टाइम, सब ठीक-ठाक ना?"

    संजय बोले, "हां, यार वो आज 9 बजे रात की ट्रेन से मुझे जयपुर जाना है कल वहाँ मेरी मीटिंग है एक कस्‍टमर से। तो तैयारी करनी थी इसीलिये जल्‍दी आ गया।"

    मैंने पूछा, "तो किस टाइम जाओगे स्‍टेशन?"

    संजय बोले, "टिकट करवा ली है, अब 7 बजे निकलूंगा सीधे स्‍टेशन के लिये।"

    अब मैं तो फंस गई। अरूण मेरा इंतजार करेंगे। घर से कैसे निकलूँ, यही विचार कर रही थी कि मेरे मोबाइल की घंटी बजी।

    मैं समझ गई कि अरूण का ही फोन होगा पर अब कैसे बात करूं अरूण से, और क्‍या जवाब दूं अरूण को..

    सोचने का भी टाइम नहीं था। फोन बजकर खुद ही बंद हो गया। सबसे पहले मैंने फोन उठाकर उसको साइलेंट पर किया। तभी संजय ने पूछा, "किसका फोन था?"

    मैंने जवाब दिया, "कुछ नहीं वो कम्‍पनी वालों के फोन आते रहते हैं, मैं तो दुखी हो जाती हूँ।" संजय ने कहा, "बाद में मुझे याद दिलाना, मैं डी एन डी एक्‍टीवेट कर दूँगा।"
    "हम्‍म्‍म्‍म्‍म्‍म्‍म.." बोलती हुई मैं मोबाइल लेकर टायलेट में चली गई।तब तक देखा अरूण की 3 मिस कॉल आ चुकी थी। मैंने सबसे पहले अरूण को मैसेज किया कि मेरे पति घर आ गये हैं। मैं थोड़ी देर में निकल कर फोन करती हूँ। फिर सोचने लगी कि क्‍या तरकीब निकालूं। पर मैं उस समय खुद को बहुत बेचारा महसूस कर रही थी। संजय 7 बजे घर से जाने वाले थे। तो मैं 7 से पहले तो घर से निकल ही नहीं सकती थी और 7 बजे के बाद अंधेरा हो जाता तो बच्‍चों को घर में अकेला छोड़कर मैं 7 बजे के बाद भी घर से नहीं निकल सकती थी। मैं एक पारिवारिक महिला ही जिम्‍मेदारियों में फंस चुकी थी। मेरे पास अब अरूण से मिलने का कोई रास्‍ता नहीं था.

    और वो इतनी दूर से आये थे सिर्फ मेरे लिये रात की ट्रेन से टिकट कराई मैं उनसे ना मिलूं ये भी ठीक नहीं था। समझ में नहीं आ रहा था मैं क्‍या करूं।

    मैं बहुत देर से टाइलेट में थी तो बाहर जाना भी जरूरी था। मैं मोबाइल को छुपाकर धीरे से बाहर निकली।

    "कुसुम, चाय पीने का मन है यार। तुम चाय बनाओ मैं ब्रैड लेकर आता हूँ।" बोलते हुए संजय घर से बाहर चले गये। मेरी तो जैसे सांस में सांस आई। उनके बाहर जाते ही मैंने दरवाजा अन्‍दर से बंद किया और अरूण को फोन किया। पहली ही घंटी पर अरूण का फोन उठा वो बोले, "कहाँ हो यार? मैं कब से तुम्‍हारा वेट कर रहा हूँ।"

    मैंने पूछा, "कहाँ हो आप?"

    मुझे उनको यह बताने में बहुत ही शर्म महसूस हो रही थी कि मैं नहीं आ पाऊंगी. पर बताना तो था ही। इसीलिये मैं बातें बना रही थी। उन्‍होंने बताया, "कश्‍मीरी गेट मैट्रो स्‍टेशन के नीचे काफी शॉप पर हूँ। यहीं तो मिलने को बोला था ना तुमने।"

    अब मैं क्‍या करती, मैंने उनको सच-सच बताने का फैसला किया, "सुनो, मैं आज नहीं आ पाऊँगी।" "कोई बात नहीं, पर क्‍या कारण जान सकता हूँ? अगर तुम बताना चाहो तो।" उन्‍होंने बिल्‍कुल शान्‍त स्‍वभाव से पूछा।

    मैंने उनको सारी बात बता दी।

    तो अरूण बोले, "तुम्‍हारा पहला फर्ज पति का साथ देना है, तुम उनके जाने की तैयारी करो। जब वो चले जायेंगे 7 बजे तब मुझसे बात करना मेरी ट्रेन रात को 11 बजे की है।" मैंने कहा, "पर 7 बजे अंधेरा हो जाता है मैं घर से उस समय नहीं निकल पाऊँगी।"

    "अरे यार, तुम टैंशन मत लो। मैं कब तुमको बाहर निकलने को बोल रहा हूँ। मैं तो सिर्फ फोन पर बात करने को बोल रहा हूँ। अभी तुम अपने पति पर ध्‍यान दो।" बोलकर अरूण ने ही फोन काट दिया।

    सच में अरूण कितने अच्‍छे, मैच्‍योर और कोआपरेटिव इंसान, हैं ना। मैं सोचने लगी. और चाय बनाने चली गई।

    तब तक बच्‍चे भी वापस आ गये और संजय भी। मैंने सभी को चाय ब्रैड खिलाकर जल्‍दी जल्‍दी खाना बनाने की तैयारी शुरू कर दी। और संजय अपनी पैकिंग करने लगे। समय कैसे बीत गया पता ही नहीं चला। मैंने संजय के लिये रात का खाना पैक कर दिया।

    सात बजे संजय ने अपना बैग उठाया और चलने लगे। मैंने संजय को विदा किया और बच्‍चों की तरफ देखा दोनों ही टीवी में व्‍यस्‍त थे। मैंने दूसरे कमरे में जाकर तुरन्‍त अरूण को फोन किया।

    उधर से अरूण की आवाज आई, "हैल्‍लो, हो गई क्‍या फ्री?"

    "हाँ जी, फ्री सी ही हूँ. पर इस समय बच्‍चों को घर में अकेला छोड़कर नहीं निकल सकती।" मैंने कहा।

    "अरे अरे, तुम टैंशन मत लो, कोई बात नहीं अगर किस्‍मत में इस बार तुमसे मिलना नहीं लिखा तो क्‍या हुआ? अगली बार देखते हैं।" अरूण बोले।

    "पर मैं बहुत उदास हूँ, मेरा बहुत मन है आपसे मिलने का, आप एक काम कर सकते हो क्‍या?" मैंने कुछ सोचते हुए पूछा।

    "हां, बताओ।" अरूण ने कहा।

    "मैं बच्‍चों को जल्‍दी सुलाने की कोशिश करती हूँ।, आप 8 बजे तक मेरे घर ही आ जाओ। मैं आपको अपने हाथ का बना खाना भी खिलाऊंगी. और तसल्‍ली से बैठकर बातें भी होंगी। आपकी ट्रेन 11 बजे है ना आप 10.30 पर भी निकलकर आटो से जाओगे तो 11 बजे तक पुरानी दिल्‍ली स्‍टेशन पहुँच ही जाओगे।" मैंने कहा।

    अरूण मेरी बात से सहमत हो गये। मैंने उनको अपने घर का पता समझाया और तुरन्‍त आटो करने को बोला।

    उन्‍होंने 'ओ के' बोलकर फोन काटा। मैंने बच्‍चों को खाना खिलाकर तुरन्‍त सोने का आदेश दे दिया। थोड़ी सी कोशिश करने के बाद ही दोनों बच्‍चे सो गये। मैं तुरन्‍त बच्‍चों के कमरे से बाहर आई, अरूण को फोन किया तो वो बोले की आटो में हूँ। उतर कर फोन करता हूँ। मेरे पास अब ज्‍यादा समय नहीं था। मैं तेजी से तैयार होने लगी।

    अभी मैं साड़ी बांधकर हल्‍का सा मेकअप कर ही रही थी कि अरूण का फोन आया।

    मैंने फोन उठाया तो एकदम ही अरूण बोले, "अरे, देखो शायद मैं तुम्‍हारी बिल्‍डिंग के बाहर ही हूँ।"

    मैंने खिड़की खोलकर देखा तो अरूण बिल्‍कुल मेरे फ्लैट के नीचे ही खड़े थे। मैंने उनको ऊपर देखने को कहा। वो मेरी तरफ देखते ही मुस्‍कुराये। मैं बहुत खुश थी मैंने उनको मेरे फ्लैट तक बिना शोर या आवाज किये आने को कहा। वो धीरे से सीधे मेरे फ्लैट के दरवाजे पर आये।

    मैंने दरवाजा पहले से ही खोल रखा था. उनको अन्‍दर लेकर मैंने दरवाजा बन्‍द कर दिया। अब सब ठीक था कोई परेशानी नहीं थी। उन्‍होंने अन्‍दर आते ही मुझे गले लगाया।

    मैं बहुत खुश थी।

    उन्‍होंने कहा, "बहुत सुन्‍दर लग रही हो।"

    मैंने मुस्‍कुराते हुए कहा, "अच्‍छा मिलते ही चालू हो गये। आप बैठो सब्‍जी तैयार है मैं पहले आपके लिये गर्म गर्म रोटी बनाती हूँ।" अरूण मना करने लगे। पर मैं जबरदस्‍ती करती हुई रसोई में चली गई। वो भी मेरे पीछे पीछे वहीं आ गये।

    मैंने कहा, "आप बाहर बैठो मैं आती हूँ।"

    अरूण बोले, "समय कम है हमारे पास मैं यहीं तुम्‍हारे साथ बात भी करता रहूँगा और तुम खाना भी बना लेना। वैसे भी इस साड़ी में मस्‍त लग रही हो। तुम्‍हारा तो किडनैप करना पड़ेगा।"

    मैंने जवाब दिया, "ऐसे तो कभी कभी मिल भी सकते हैं किडनैप करोगे तो एक बार में ही काम खत्‍म।"

    वो हंसते हुए बोले, "लगता है आज ही वैक्‍स भी किया है बाजू बहुत चिकनी चिकनी लग रही है।"

    और मेरे पीछे से खड़े होकर मेरी दोनों बाजुओं पर अपने हाथ फिराने लगे.

    "सीईईई ईईय." मैं सीत्‍कार उठी। मैंने वहीं खड़े-खड़े अपने नितम्‍बों को पीछे करके उनको पीछ की तरफ धकेला।

    अरूण बोले, "ये क्‍या कर रही हो? बीच में तुम्‍हारी साड़ी आ गई नहीं तो पता है तुम्‍हारे कूल्हे कहाँ जा टकराएँ हैं? अगर कुछ गड़बड़ हो जाती तो.?"

    "हा. हा. हा. हा. हो जाने दो.!" मैंने हंसते हुए अरूण को छेड़ा।

    अरूण बोले, "नहीं, वक्त नहीं है. 9 बजने वाले हैं. और मुझे अपनी ट्रेन भी पकड़नी है। मैं तो बस तुमसे मिलने आया हूँ और कुछ नहीं।"

    अरूण मेरे सबसे अच्‍छा दोस्‍त बन गये थे. पता नहीं क्‍यों पर मैं अरूण के साथ बिल्‍कुल भी झिझक महसूस नहीं कर रही थी बल्कि मैं तो बहुत ज्‍यादा सहज महसूस कर रही थी अरूण के साथ।

    इतना तो मैंने कभी संजय के साथ भी महसूस नहीं किया था। पर मैं पता नहीं आज किस मूड में थी। पर अरूण को कुछ कहूँ भी तो कैसे कहीं वो मुझे गलत ना समझ लें। रो‍टी बनाकर मैं डायनिंग पर दोनों के लिये खाना लगाने लगी, अरूण भी मेरी मदद कर रहे थे जबकि संजय ने तो आज तक मेरे साथ घर के काम में हाथ भी नहीं लगाया।

    मैं तो अरूण के व्‍यवहार की कायल होने लगी थी।

    खाना खाते-खाते ही 9.30 हो गये। अरूण 10 बजे तक वापस जाना चाहते थे। मेरी समझ में नहीं आ रहा था कि उसको कैसे रोकूं। मैंने अरूण को बोला कि आप 10.30 तक भी निकलोगे तब भी आपको ट्रेन मिल जायेगी। अभी तो आपसे बहुत सारी बातें करनी हैं। अभी आप जल्‍दी मत करो।

    वो मेरी बात मान गये और रिलैक्‍स होकर बैठ गये।

    10 मिनट बैठने के बाद ही अरूण फिर से बोले, "कुसुम एक कप चाय पिला दो फिर जाना भी है।"

    अब तो मुझे गुस्‍सा आ गया, मैंने कहा, "इतनी जल्‍दी है जाने की तो आप आये की क्‍यों थे? अब मैं चाय नहीं बनाऊँगी आपको जाना है तो जाओ।"

    "ओह.हो. मेरी बुलबुल नाराज हो गई, चलो मैं बुलबुल को चाय बनाकर पिलाता हूँ।" अरूण ने कहा।

    उनका इस तरह प्‍यार से बोलना मुझे बहुत ही अच्‍छा लगा. और चाय तो 11 सालों में मुझे कभी संजय ने भी नहीं पिलाई, उनको तो चाय बनानी आती भी नहीं। मैं तो यही सोचती रही, तब तक अरूण उठ कर रसोई की तरफ चल दिये।

    मैंने कहा, "ठीक है आज चाय आप ही पिलाओ।"

    अरूण बोले, "मैं चाय बनाकर पिलाऊँगा तो क्‍या तोहफ़ा दोगी?"

    "अगर चाय मुझे पसन्‍द आ गई तो जो आप मांगोगे वो दूंगी और अगर नहीं आई तो कुछ नहीं।" मैंने कहा।

    "ओके." बोल कर वो गैस जलाते हुए बोले, "तुम बस साथ में खड़ी रहो, क्‍योंकि रसोई तुम्‍हारी है। मुझे तो सामान का नहीं पता ना."

    मैं उनके साथ खड़ी उनको देखती रही। कितनी सादगी और अपनापन था ना उनमें। मुझे तो उनमें कोई भी अवगुण दिखाई ही नहीं दे रहा था।

    वो चाय बनाने लगे। मैं उनको देखती रही। मुझे अरूण पर बहुत प्‍यार आ रहा था पर मैं अपनी सामाजिक बेड़ियों में कैद थी। चाय बनाकर अरूण कप में डालकर ट्रे में दो कप सजाकर डाइनिंग टेबल पर रखकर वापस रसोई में आये. और मेरा हाथ बड़ी नजाकत से पकड़कर किसी रानी की तरह मुझे डाइनिंग टेबल तक लेकर गये और बोले, "लीजिये मैडम, चाय आपकी सेवा में प्रस्‍तुत है।"

    मैंने चाय की एक चुस्‍की लेते ही उनकी तारीफ की तो अरूण बोले, "तब तो मेरा उपहार पक्‍का ना?"

    मैंने कहा, "क्‍या चाहिए आपको?"

    "अपनी मर्जी से जो दे दो।" अरूण ने कहा।

    "नहीं, तय यह हुआ था कि आपकी मर्जी का गिफ्ट मिलेगा, तो आप ही बताइये आपको क्‍या चाहिए?" मैंने दृढ़ता से कहा।

    अरूण बोले, "देख लो, कहीं मैं कुछ उल्‍टा सीधा ना मांग लूं, फिर तुम फंस जाओगी।"

    "कोई बात नहीं, मुझे आप पर पूरा विश्‍वास है, आप मांगो।" मैंने फिर से जवाब दिया।

    "तब ठीक है, मुझे तुम्‍हारे गुलाबी होठों की. एक चुम्‍मी चाहिए।" अरूण ने बेबाक कहा।

    मैंने बिना कोई जवाब दिये, नजरें नीचे कर ली। अरूण ने उसको मेरी मंजूरी समझा और मेरे नजदीक आने लगे। मेरी जुबान जो अभी तक कैंची की तरह चल रही थी. अब खामोश हो गई। मैं चाहकर भी कुछ नहीं बोल पा रही थी।

    अरूण मेरे बिल्‍कुल नजदीक आ गये। मेरी सांस धौंकनी की तरह चलने लगी। अरूण ने चेहरा ऊपर करके अपने होंठ मेरे होठों पर रख दिया। आहहहह. कितना मीठा अहसास था। उम्‍म्‍म्‍म्‍म. बहुत मजा आ रहा था। मेरी आँखें खुद-ब-खुद बन्‍द हो गई।

    संजय के बाद वो पहले व्‍यक्ति थे जिन्‍होंने मेरे होठों को चूमा था. उनका अहसास संजय से बिल्‍कुल अलग था। अरूण बहुत देर तक मेरे होठों को लालीपॉप की तरह चूसते रहे। वो कभी मेरे ऊपरी होंठ को चूसते तो कभी नीचे वाले। उन्‍होंने मुझे अपनी बाहों में जकड़ रखा था।

    अचानक उन्‍होंने अपनी जीभ मेरे होठों के बीच से मेरे मुँह में सरका दी। उनकी जीभ मेरी जीभ से जो ठकराई तो मुझे ऐसा लगा जैसे मैं किसी जन्‍नत में आ गई हूँ। उनकी जीभ मेरी जीभ से मुँह के अन्‍दर ही अठखेलियाँ करने लगी। अब मैं मदहोश हो रही थी। मैं भी उनका साथ देने लगी। उनका यह एक चुम्‍बन ही 10 मिनट से ज्‍यादा लम्‍बा चला।
    जब उन्‍होंने मेरे होठों को छोड़ा तो भी मीठा मीठा रस मेरे होठों को चुम्‍बन का अहसास दिला रहा था। मेरी आँखें अभी भी बन्‍द ही थी। अरूण बोले, "आँखें खोलो कुसुम मुझे जाना है।"

    यह बोलकर वो चाय पीने लगे। मैं उस इंसान को नहीं समझ पा रही थी। क्‍या अरूण सच में इतना शरीफ थे। परन्‍तु उनके एक चुम्‍बन के अहसास ने मुझे नारी के अन्‍दर की वासना का अहसास दिला दिया था, मैं तुरन्‍त बोली, "यह तो आपका चुम्‍बन था, अब मेरा भी तो देकर जाओ।"

    वो चाय खत्‍म करके मेरे पास आये और बोले, "ले लो, मैंने कब बना किया पर मेरे पास अब ज्‍यादा समय नहीं है।"

    मैं भी समय नहीं गंवाना चाहती थी, मैंने उनकी गर्दन में बांहें डालकर उनको थोड़ा सा नीचे किया. और अपने होंठ उनके होंठों पर रख दिये. अब तो मैं भी चुम्‍बन करना सीख ही गई थी, मैंने उनके होठों की उसी प्रकार चूसना शुरू कर दिया जैसे कुछ पल पहले वो मेरे होठों को चूस रहे थे।

    उम्‍म्‍म. ! क्‍या स्‍वाद था उनके होठों का !

    चाय पीने के बाद तो उनके होंठ और भी मीठे लग रहे थे। मैंने भी उनकी नकल करते हुए अपनी जीभ उनके मुँह में ठेल दी। वो तो बहुत ही अनुभवी थे, उन्‍होंने अपनी जीभ को मुँह के अन्‍दर मेरी जीभ में लपेटना शुरू कर दिया। मैं इस चुम्‍बन में बहुत लम्‍बा समय लेना चाहती थी। इस बात का मैं ध्‍यान रख रही थी. और चुम्‍बन बहुत ही धीरे धीरे परन्‍तु लगातार कर रही थी। बीच बीच में सांस भी ले रही थी, मैं उनके होठों का पूरा स्‍वाद ले रही थी।

    इस बार शायद मैं जीत गई। कुछ देर बाद ही उन्‍होंने मुझे अपनी बाहों में भर लिया। उनकी बाहों का घेरा मेरी पीठ के चारों ओर बन चुका था, वो अपने हाथों से मेरी पीठ को सहलाने लगे. हम्‍म्‍म. अब तो अरूण के होंठ मुझे और भी स्‍वादिष्‍ट लगने लगे थे।

    आह.यह क्‍या.? अरूण ने मेरे दोनों नितम्‍बों को पकड़कर. सीईईईईई. अपनी ओर खींच लिया। इस प्रगाढ़ चुम्‍बन की वजह से मेरी सांस रुकने लगी थी, मुझे अपने होंठ उनके होंठों से अलग करने पड़े।

    जैसे ही हमारे होंठ अलग हुए. अरूण ने अपने तपते हुए होंठ मेरे कन्‍ध्‍ो पर रख दिए।

    उईई ईईईई. माँऽऽऽऽऽऽऽ. मैं सीत्‍कार उठी।

    वो लगातार मेरे बांयें कन्‍धे को चूम रहे थे। उनके गर्म होंठों का अहसास मेरे पूरे बदन में होने लगा। मेरे बांयें कन्‍धे को कई बार

    चूमने के बाद. उन्‍होंने अचानक. मुझे पीछे की तरफ घुमा दिया. अब मेरी पीठ उनकी छाती से चिपकी हुई थी. अरूण मेरे बिल्‍कुल पीछे आ गये. और अपने गरम होंठ मेरे दायें कन्‍धे पर रख दिये. अपने दोनों हाथों से अरूण ने मेरे दोनों स्‍तनों को प्‍यार से सहलाना शुरू कर दिया.

    मुझे तो जैसे नशा सा छाने लगा था. मैं खुद ही पीछे होकर अरूण से चिपक गई। वो दोनों हाथों से लगातार मेरे स्‍तनों को सहला रहे थे. आहहहहहह. मेरे तो चुचुक भी कड़े हो गये थे. शायद.अरूण. को. भी. इसका. अहसास. हो. गया. था.!

    अरूण ने ऊपर से मेरे दोनों चुचूकों को पकड़ लिया. सीईईईई ईई. कितनी बेदर्दी से वो मेरे चुचूक मसल रहे थे. पर मुझे बहुत अच्‍छा लग रहा था। धीरे धीरे उनका सिर्फ दाहिना हाथ ही मेरे स्‍तनों पर रह गया. बांया हाथ तो सरक कर नीचे मेरे पेट पर. हम्म्‍म्‍म. नहीं. नाभि पर आ गया था. मुझे मीठी मीठी गुदगुदी होने लगी. मुझे तो पता ही नहीं लगा कब मेरी नाभि से खेलते खेलते उन्‍होंने मेरी साड़ी पेटीकोट में से खोलकर. नीचे गिरा दी. मैं तो मूरत बनी अरूण की हर क्रिया का आनन्‍द ले रही थी। मुझे तो होश ही तब आया जब अरूण के हाथ मेरे पेटीकोट के नाड़े को खींचने लगे।

    मैंने झट से अरूण का हाथ पकड़ लिया। अरूण ने मौन रहकर ही बिना कुछ बोले फिर से नाड़े को खीचने का प्रयास किया। इस बार मैंने फिर से बल्कि ज्‍यादा मजबूती से उनका हाथ रोक लिया।

    बिना कुछ बोले उन्‍होंने वहाँ से हाथ हटा लिया. और फिर से मुझे पकड़कर गुड़िया की तरह घुमाया. मेरा चेहरा अपनी तरफ कर लिया. अब उनकी जुबान मेरे चेहरे पर घूमने लगी वो मेरे चेहरे को चाटने लगे. छी: . शायद इस बारे में कभी कोई बात भी करता तो मुझे बहुत घिनौना लगता. पर. पता नहीं क्‍यों. अरूण की यह हरकत मेरे लिये बहुत कामुक हो गई. उनके दोनों हाथ मेरी पीठ पर सरकने लगे. अब तो मैंने भी अपनी दोनों बाहें उनकी कमर में डाल कर उनको जकड़ लिया.

    अरूण शायद इसी पल का. इन्‍तजार कर रहे थे. उन्‍होंने झट से अपने एक हाथ से मेरे पेटीकोट का नाड़ा खींच दिया. एक ही झटके में मेरा वो आवरण नीचे गिर गया. मुझे तो उसका अहसास भी तब हुआ जब वो मेरे पैरों पर गिरा. पर. मैं उस समय इतनी कामुक अवस्‍था में आ चुकी थी. कि दोबारा पेटीकोट की तरफ ध्‍यान भी नहीं दिया।

    अब मैं नीचे से सिर्फ पैंटी में थी, अरूण लगातार मेरे चेहरे, गर्दन एवं कन्‍धों पर चुम्‍बन कर रहे थे। सीईईईई. आहहह हह. हम्‍म्‍म्‍म्‍म. मैं लगातार कराह सी रही थी. अरूण की उंगलियों मेरे नितम्‍बों पर गुदगुदी कर रही थी मुझे ऐसा आनन्‍द तो जीवन में कभी मिला ही नहीं था। मेरे नितम्‍ब तो अरूण की उंगलियों की ताल पर खुद ही थिरकने लगे थे. कभी कभी अरूण मेरी पैंटी में उंगली डालकर मेरे नितम्‍बों की बीच की दरार कुरेद सी देते. तो मैं सिर से पैर तक हिल जाती. पर मन कहता कि वो ऐसा ही करते रहें. पता नहीं अरूण ने कब अपने हाथ मेरे नितम्‍बों से हटा कर ऊपर मेरी पीठ पर फिराने शुरू कर दिये।

    अचानक मुझे अपना ब्‍लाउज कुछ ढीला महसूस होने लगा, मेरा ध्‍यान उधर गया तो पता चला कि अब तक अरूण मेरे ब्‍लाउज के हुक भी खोल चुके थे. हाय. रेएए. ये इन्‍होंने क्‍या कर दिया. अब तो मुझे लज्‍जा महसूस होने लगी. इतनी रोशनी में नंगी होना. वो भी पर-पुरूष के सामने.??

    इतनी रोशनी में तो मैं कभी संजय के सामने भी नंगी नहीं हुई. और उन्‍होंने कोशिश भी नहीं की. मैंने झट से अपनी बाहों से अरूण की पीठ को अच्‍छी तरह जकड़ लिया।

    वो मुझे आगे करके मेरा ब्‍लाउज उतारना चाहते थे. बार बार कोशिश कर रहे थे पर मैंने उनको इतनी जोर से पकड़ रखा था कि कई कोशिश के बाद भी वो मुझे खुद से अलग नहीं कर पाये। आखिर में उन्‍होंने हथियार डाल दिये और फिर से मेरी पीठ पर गुदगुदी करने लगे. मैं बहुत खुश थी एक तो ब्‍लाउज उतारने से बच गई. दूसरे उनकी गुदगुदी मेरे अन्‍दर बहुत ही मस्‍ती पैदा कर रही थी. मैंने समझा कि अब तो ये मेरा ब्‍लाउज उतार ही नहीं पायेंगे. हायय. पर ये अरूण तो बहुत ही बदमाश निकले. सीईईईई. मैं कहाँ फंस गई आज. इन्‍होंने तो मेरी पीठ पर गुदगुदी करते करते मेरी ब्रा का हुक भी खोल दिया. कितने आराम और मनोभाव से वो मेरा एक एक वस्‍त्र खोल रहे थे. मुझे तो अन्‍दाजा भी तब लगता था जब वो वस्‍त्र खुल जाता था.

    मैंने उनको जकड़ का पकड़ा था. वो. मुझे. खुद से अलग करने की कोशिश कर रहे थे, ताकि मेरा ब्‍लाउज और ब्रा निकाल सकें. मैं शर्म से दोहरी सी हुई जा रही थी. मेरी टांगें थर-थर कांप रही थी.

    अब जाकर कहीं उनके मुँह से कोई आवाज निकली. वो बोले, "जानेमन, मैं तुम्‍हारी पूरी खूबसूरती अपनी नजरों में कैद करना चाहता हूँ। सिर्फ एक सैकेन्‍ड के लिये मुझे छोड़ दो, फिर मैं खुद ही तुमको पकड़ लूँगा।"

    मैंने कोई जवाब नहीं दिया।

    उन्‍होंने अपने हाथ से मेरी ठोड़ी को पकड़ कर ऊपर किया और मेरी आँखों में झांकते हुए विनती सी करने लगे जैसे कह रहे हों, "प्‍लीज, मुझे अपनी प्राकृतिक अवस्‍था का दर्शन कराओ।"

    उनकी नजरों में देखते देखते पता नहीं कब मेरी पकड़ ढीली हुई और वो मुझसे थोड़ा सा अलग हुए. मेरी ब्रा और ब्‍लाउज निकल कर उनके हाथ में आ गये।

    आहहह. मैं तो खुद को अपने हाथों से ही छुपाने लगी, ट्यूब की रोशनी में. मैं. अपना बदन. उनकी नजरों से बचाने की. नाकाम कोशिश. कर रही थी. और वो जैसे बेशर्मों की तरह मुझे लगातार एकटक निहार रहे थे.

    हाय. मांऽऽऽऽ. ये कैसे. हो. गया. मुझसे. मैं तो काम और लज्‍जा के समुद्र में एक साथ गोते लगा रही थी।

    उन्‍होंने मुझे पकड़ और धीरे से वहीं सोफे पर गिरा दिया.
    मैंने लेटते ही अपने स्‍तनों की अपनी दोनों बाजुओं से ढक लिया। उन्‍होंने आराम से अपनी पैंट और शर्ट उतारी तो अरूण मेरे सामने बनियान और अन्‍डरवीयर में थे. उनके अन्‍डरवीयर को देखकर ही उसके अन्‍दर जागृत हो चुका नाग बार-बार अपना फन उठाने की कोशिश कर रहा था।

    मेरी निगाह वहीं रूक गई।

    अरूण आकर मेरे बराबर में फर्श पर बैठ गई और मेरा हाथ बड़े ही प्‍यार से एक स्‍तन से हटाकर उस स्‍तन को अपने. हाय रे. रसीले. होठों के हवाले कर दिया।

    मेरे चुचूक इतने कड़े और मोटे लग रहे थे कि मुझे खुद ही उनमें हल्‍का हल्‍का दर्द महसूस होने लगा था पर वो दर्द इतना मीठा था कि दिल कर रहा था ये दर्द लगातार होता रहे.

    उफ़्फ़. अब पता नहीं मुझे क्‍या होने लगा था? शरीर के अन्‍दर अजीब अजीब तरंगें पैदा हो रही थी। अरूण मेरे दोनों स्‍तनों से मस्‍ती से स्‍तनपान का आनन्‍द ले रहे थे अब तो उनके हाथ भी मेरे पेट और टांगों पर चलने लगे थे।

    आहह. उफ़्फ़फ. की ही हल्‍की सी आवाज मेरे कण्‍ठ से उत्‍पन्‍न हो रही थी। अरूण मेरे कान में हल्‍के से बोले, "कैसा लग रहा है.?" मैं तो कुछ जवाब देने की स्थिति में ही नहीं थी। अरूण की उंगलियाँ मेरी नाभि के आसपास घूम रही थी। मैं उस समय खुद को जन्‍नत में महसूस कर रही थी।

    अरूण ने धीरे से अपना हाथ नाभि से नीचे सरकाया. हाय्य. ये तो. इन्‍होंने अपना हाथ. मेरी पैंटी. के अन्‍दर घुसा दिया. मेरी पैंटी तो पूरी तरह से मेरे प्रेम रस से भीग चुकी थी. उनका हाथ भी गीला हो गया. अरूण अपनी एक उंगली कभी मेरे योनि द्वार पर और कभी मदनमणि पर फिराने लगे.

    आहहह. मेरे मुँह से निकली. मेरा. सारा बदन कांप रहा था. मैं खुद ही अपनी टांगें सोफे पर पटक रही थी. अरूण ने मेरे कान में कहा, "पूरी गीली हो गई हो नीचे से !"

    और अपनी हाथ मेरी पैंटी ने निकाल कर मेरे प्रेमरस से भीगी अपनी उंगली को धीरे-धीरे चाटने लगे।

    "छी." मेरे मुँह से निकला।

    "बहुत टेस्‍टी है तुम्‍हारा रस तो, तुम चाट कर देखो।" बोलते बोलते अरूण ने अपनी उंगलियाँ मेरे मुँह में घुसा दी।

    थोड़ा कसैला. पर. स्‍वाद बुरा नहीं था मेरे प्रेमरस का। अरूण पूरी तरह मेरे बदन पर अपना अधिकार कर चुके थे। वो खड़े हुए और अपना बनियान और अंडरवियर भी निकाल दिया। इतनी रोशनी में पहली बार मैं किसी पुरूष को अपने सामने नंगा देख रही थी। संजय ने जब भी मेरे साथ सैक्‍स किया था वो खुद ही बिजली बुझा देते थे। मुझे यह बहुत अजीब लगा और मैंने अपनी आँखें शर्म के बंद कर ली। अरूण की सबसे अच्‍छी खूबी यह थी कि वो मेरी किसी भी हरकत का बुरा नहीं मानते. और जवाब में ऐसी हरकत करते कि मैं खुद ही उनके सामने झुक जाती। यहाँ भी अरूण ने यही किया. मेरे आँखें बन्‍द करते ही वो सोफे पर मेरे बराबर में बैठ गये अपने

    हाथ से मेरा हाथ पकड़कर अपने लिंग पर रख दिया.

    आहहह. कितना. गर्म लग रहा था. ऐसा लगा जैसे मेरे हाथ में लोहे की कोई गरम छड़ दे दी हो।

    मैंने एक बार हाथ हटाने की कोशिश की. पर अरूण ने मेरा हाथ पकड़ लिया और अपने लिंग पर रखकर हौले-हौले आगे पीछे करने लगे। मुझे यह अच्‍छा लगा तो मैं भी अरूण का साथ देने लगी। अब अरूण ने मेरा हाथ छोड़ दिया। वो मेरी दोनों पहाड़ियों से खेल रहे थे और मैं उनके उन्‍नत लिंग से। कुछ देर तक ऐसे ही चलता रहा। अन्‍दर ही अन्‍दर मुझे यह सबअच्‍छा लग रहा था पर मेरी योनि के अन्‍दर इतनी खुजली हो रही थी जो मैं बर्दाश्‍त भी नहीं कर पा रही थी। मेरी योनि में अन्‍दर ही अन्‍दर कुछ चल रहा था, मेरे हाथ अरूण के लिंग पर तेजी से चलने लगे। उतनी ही तेजी से मेरी योनि के अन्‍दर भी हलचल होने लगी।

    अरूण थे कि मेरे चेहरे होंठ और स्‍तनों पर ही लगे हुए थे. नीचे कितनी आग लगी है इसका तो उन्‍हें अनुमान ही नहीं था।

    पर.. मैं. बहुत. ही. बेचैन. होने. लगी. थी, मैं तो टांगें भी पटकने लगी थी अरूण ने मेरे हाथों से अपना लिंग छुड़ाया. थोड़ा सा पीछे की ओर घूमकर अपनी हाथ मेरी योनि पर रखकर सहलाने लगे। वो शायद मेरी आग को समझ गये थे और उसको बुझाने का प्रयास कर रहे थे।

    पर उनका हाथ वहाँ लगते ही तो मेरी आग और तेजी से भड़कने लगी. "आहहह. हाय राम. उईईई. हाय रेरेरेरे. मैं तो आज मर ही जाऊँगी. हाय. कुछ करो नाऽऽऽऽऽ. " अनायास ही मेरे मुँह से निकला।

    अरूण ने मुझे सोफे से गोदी में उठाया और मेरे बैडरूम में ले गये। बैड पर मुझे सीधा लिटाकर वो मेरे ऊपर उल्‍टी अवस्‍था में आ गये. उन्‍होंने अपनी दोनों टांगों को मेरे चेहरे के इर्द-गिर्द रखकर अपना चेहरा मेरी योनि के ऊपर सैट किया और हाय. ये क्‍या किया.? अपनी जीभ मेरी योनि के दोनों गुलाब पंखों के बीच में घुसा दी। ऊफ़्फ़फफ. मैं क्‍या करूँ.?

    मेरे अन्‍दर की कामाग्नि ने मेरी शर्म को तो शून्‍य कर दिया। इस समय दिल ये था कि अरूण पूरे के पूरे मेरी योनि के अन्‍दर घुस जायें. पर वो तो मेरी योनि को ऐसे चाट रहे थे जैसे कोई गर्म आईसक्रीम मिल गई हो.

    मेरा सारा बदन पसीने पसीने हो गया. उनका लिंग मेरे बार-बार मेरे होठों को छू रहा था पर वो थे कि बस योनि चाटने में ही व्‍यस्‍त थे. पता नहीं कब और कैसे मेरा मुँह अपने आप ही खुल गया. होंठ लिंग को पकड़ने का प्रयास करने लगे। पर वो तो मेरे साथ अठखेलियाँ कर रहा था कभी इधर-‍िहल जाता कभी उधर. मैं तो खुद पूरी तरह उनके कब्‍जे में थी। मैंने अपने हाथ से अरूण के लिंग को पकड़ा और अपने होठों के बीच सैट किया. अब मैं भी उनका लिंग आइसक्रीम की तरह चूसने लगी.

    कुछ ही देर में मेरा बदन अकड़ने लगा। मेरे अन्‍दर का लावा छलक गया मैं स्‍खलित हो गई. और शान्‍त भी अरूण का लिंग भी मेरे मुँह से निकल गया।

    मैं तो जैसे कुछ पल के लिये चेतना विहीन हो गई। कुछ सैकेन्‍ड बाद तेरी चेतना जैसे लौटने लगी तो अरूण ने घूमकर मुझसे पूछा, "कैसा लग रहा है?"

    "बहुत अच्‍छा ! ऐसे जीवन में पहले कभी नहीं लगा।" मैंने बिना किसी संकोच के कहा, "पर आपका तो नहीं हुआ ना।" मैंने कहा।

    "अब हो जायेगा।" बोलकर अरूण मेरे पूरे बदन पर अपनी उंगलियाँ चलाने लगे मेरी जांघों पर हल्‍की हल्‍की मालिश करते और नाभि को चूमते मैं कुछ ही पलों में पुन: गर्म होने लगी।

    इस बार मैंने खुद ही अरूण का लिंग अपने हाथों में ले लिया। लिंग का अग्रभाग बाहर की ओर निकलकर मुझे झांक रहा था बिल्‍कुल लाल हो चुका पूरी हेकड़ी से खड़ा था मेरे सामने।

    अरूण ने मेरे हाथ से अपना लिंग छुड़ाने का प्रयास किया। पर अब मैं उसको छोड़ने को तैयार नहीं थी. मेरे लिये अरूण का लिंग एक लिंग ही नहीं बल्कि उन लाखों भारतीय नारियों की इच्‍छा पूर्ति का यन्‍त्र बन गया जो अपनी कामेच्‍छाओं को पतिव्रत में दफन करके कामसती हो जाती हैं। अरूण का वो प्रेमदण्‍ड (लिंग) मुझे अपना गुलाम बना चुका था।

    अब अरूण ने अपना प्रेमदण्‍ड मेरे हाथ से छुड़ाया और मेरी टांगों को फैलाकर उनके बीच में आ गये। उन्‍होंने फिर से मेरे कामद्वार का अपने होठों से रसपान करना शुरू कर दिया।

    अब तो यह मुझसे बर्दाश्‍त नहीं हो रहा था। मजबूर होकर मुझे अपनी 32 साल की शर्म ताक पर रखनी पड़ी। मैंने ही अरूण को कहा, "अन्‍दर डाल दो प्‍लीज. नहीं तो मैं मर जाऊँगी।"

    पर शायद अरूण मजा लेने के मूड़ में थे, मुझसे बोले- क्‍या डाल दूँ?

    अब मैं क्‍या बोलती. पर जब जान पर बन आती है तो इंसान किसी भी हद तक गुजर जाता है, यह मैंने उस रात महसूस किया जब अरूण ज्‍यादा ही मजा लेने लगे और मुझमें बर्दाश्‍त करने की हिम्‍मत नहीं रही तो मैंने खुद ही अरूण को धक्‍का दिया और बिस्‍तर पर लिटा दिया। एक झटके में मैं अरूण के ऊपर आ गई और उनका मूसल जैसा प्रेमदण्‍ड पकड़कर अपने प्रेमद्वार पर लगाया, मैं उस पर बैठ गई।

    आहहह. एक ही झटके में पूरा अन्‍दर. हम्मम. क्‍या आनन्‍द था.!

    काश संजय ने कभी मुझे ऐसे तरसाया होता. तो मैं ये सुख कब का भोग चुकी होती. अब तो अरूण मेरे नीचे थे, मैं उनके प्रेमदण्‍ड पर सवारी कर रही थी. वाह. क्‍या आनन्‍द.! क्‍या अनुभव.! क्‍या उत्‍साह.! ऐसा लग रहा था जैसे मुझे यह आनन्‍द देने स्‍वयं कामदेव धरती पर आ गये हों।

    अरूण का श्‍याम वर्ण प्रेमदण्‍ड. हायय. मुझे स्‍वर्ग की सैर करा रहा था. मैं जोर जोर से कूद कूद कर धक्‍के मार रही थी। अरूण ने मेरे दोनों मम्‍मों को हाथ में पकड़ कर हार्न की तरह दबाना शुरू कर दिया। आनन्‍द मिश्रित दर्द की अनुभूति होने लगी पर आनन्‍द इतना अधिक था कि दर्द का अहसास हो ही नहीं रहा था। अरूण बार बार मेरे उरोजों को दबाते. मेरे स्‍तनाग्रों को मसलते. मेरे बदन पर हाथ फिराते. ऐसा लग रहा था जैसे अरूण इस खेल के पक्‍के खिलाड़ी थे. उनकी उंगलियों ने मेरे खून में इतना उबाल पैदा कर दिया कि मैं खुद को सातवें आसमान पर थी।

    तभी अचानक मुझे अपने अन्‍दर झरना सा चलता महसूस हुआ। अरूण का प्रेम दण्‍ड मेरे अन्‍दर प्रेमवर्षा करने लगा। अरूण के हाथ खुद ही ढीले हो गये. और उसी पल. आह. उईईईई. मांऽऽऽऽऽ. मैं भी गई. हम दोनों का स्‍खलन एक साथ हुआ. मैं अब धीरे धीरे उस स्‍वर्ग से बाहर निकलने लगी। मैं अरूण के ऊपर ही निढाल गिर पड़ी। अरूण मेरे बालों में अपनी उंगलियाँ चलाने लगे और दूसरे हाथ से मेरी पीठ सहलाने लगे।

    मेरे लिये तो यह भी एकदम नया था क्‍योंकि संजय तो हर बार काम करके अलग होकर सोने चले जाते। मुझे समझ में आने लगा कि अरूण में क्‍या खास है? कुछ देर उनके ऊपर ऐसे ही पड़ रहने के बाद मैं हल्‍की सी ऊपर हुई तो अरूण ने मेरे माथे पर एक मीठा प्‍यार भरा चुम्‍बन दिया, पूछने लगे, "अब मैं जाऊँ, इजाजत है क्‍या?"
    मैंने दीवार घड़ी की तरफ देखा और हंसने लगी, "हा. हा. हा. हा."

    "हंस क्‍यों रही हो?" अरूण ने पूछा।

    "जनाब एक बजकर बीस मिनट हो चुके हैं और आपकी गाड़ी तो पक्‍का चली गई होगी।"

    अरूण ने तुरन्‍त दीवार घड़ी की तरफ देखा, फिर मेरी तरफ देखकर मुस्‍कुराने लगे बोले, "आखिर तुमने मुझ पर अपना जादू चला ही दिया।"

    "किसने किस पर जादू चलाया ये तो भगवान ही जानता है।" मैंने हंस कर कहा।

    अरूण फिर से मेरे स्‍तनों से खेलने लगे।

    "आह. बहुत दर्द है।" अचानक मेरे मुँह से निकला।

    अरूण मेरी तरफ देखकर पूछने लगे, "तुम्‍हारी शादी को 12 साल होने वाले हैं और तुम दोनों रोज सैक्‍स भी करते हो तब भी आज तुम्‍हारे स्‍तनों में दर्द क्‍यों होने लगा?"

    "वो कभी भी इनसे इतनी बेदर्दी से नहीं खेलते।" बोलते हुए मैं उनके ऊपर से उठ गई।

    "ओह." अरूण के मुँह से निकला। शायद उनको अपनी गलती का अहसास होने लगा।

    मैंने पास ही पड़े छोटे तौलिये से अपनी रिसती हुई योनि और अरूण के बेचारे निरीह से दिख रहे लिंग को साफ किया और बाथरूम में धोने चली गई। अरूण भी मेरे पीछे पीछे बाथरूम में आये और पानी से 'सबकुछ' अच्‍छी तरह धोकर वापस बिस्‍तर पर जाकर लेट गये।

    बाथरूम से वापस आकर मैंने अपना गाउन उठाया और पहनने लगी तो अरूण ने मुझे अपनी ओर खींच लिया।

    'हाययययय.' एक झटके से मैं अरूण के पास बिस्‍तर पर जा गिरी, अरूण बोले, "थोड़ी देर गाउन मत पहनो प्‍लीज, मेरे पास ऐसे ही लेट जाओ। ऐसे ही बातें करेंगे।"

    पर अब मुझ पर से सैक्‍स का नशा उतर चुका था, ऐसे तो मैं कभी संजय के सामने भी नहीं रही थी, और अरूण तो परपुरूष थे, मुझे शर्म आ रही थी। मैं अरूण की बाहों में कसमसाने लगी, "प्‍लीज, मुझे शर्म आ रही है। मैं गाउन पहन कर आपके पास बैठती हूँ ना." मैंने कहा।

    अरूण हंसते हुए बोले, "अब भी शर्म बाकी है क्‍या हम दोनों में।"

    पर मैं थी कि शर्म से गड़ी जा रही थी. और अरूण थे कि मानने को तैयार नहीं थे। काफी देर तक बहस करने के बाद हम दोनों में सहमति हो गयी अरूण बत्ती बन्द करने को राजी हो गये और मैं लाइट ऑफ करने के बाद उनके साथ बिना गाउन के लेटने को।

    हम दोनों ऐसे ही अपनी परिवार की और न जाने क्‍या क्‍या बातें करने लगे। बातें करते करते मुझे तो पता ही नहीं चला कि अरूण को कब नींद आ गई। मैंने घड़ी देखी रात के 2 बज चुके थे पर नींद मेरी आँखों से कोसों दूर थी।

    अचानक अरूण ने मेरी ओर करवट ली और बोले, "पानी दोगी क्‍या, प्‍यास लगी है !"

    मैं उठी और अरूण के लिये पानी लेने चली गई। वापस आई तो अरूण जग चुके थे और मेरे हाथ से पानी लेकर पीने के बाद मुझे खींचकर फिर से अपने पास बैठा लिया और अपना सिर मेरी गोदी में रखकर लेट गये। मैं उनके बालों को सहलाने लगी, मैंने देखा उनका लिंग मूर्छा से बाहर आने लगा था उसमें हल्‍की हल्‍की हरकत होने लगी थी। अरूण ने शायद मेरी निगाह को पकड़ लिया। थोड़ा सा घूम कर वो मेरे बराबर में आये और खुद ही मेरा हाथ पकड़कर अपने लिंग पर रख दिया।

    अपने एक हाथ से अरुण मेरे होठों को सहलाना शुरू किया और दूसरे हाथ से मेरे उरोजों को, और फिर अचानक ही अपना दूसरा हाथ हटा लिया।

    मैंने पूछा, "क्‍या हुआ?"

    उन्‍होंने कहा, "मैं भूल गया था तुमको दर्द है ना !"

    पर तब तक तो मेरा दर्द काफूर हो चुका था। मैंने खुद ही उनका हाथ पकड़ का अपने कुचों पर रख दिया और वो फिर से मेरे उभारों से खेलने लगे पर इस बार वो बहुत ही हल्‍के और मुलायम तरीके से मेरे निप्‍पल को सहला रहे थे, शायद वो कोशिश कर रहे थे कि मुझे फिर से दर्द ना हो उनको क्‍या पता कि मैं तो उस दर्द को पाने के लिये ही तड़प रही थी।

    उनके लिंग पर मेरे हाथों की मालिश का असर दिखाई देने लगा। वो पुन: कामयुद्ध के लिये तैयार था। मैं भी अब खुलकर खेलना चाहती थी। मैं खुद ही घूम कर अरूण के ऊपर आ गई और उनके होठों को अपने होठों में दबा लिया। हम दोनों अपनी दूसरी पारी खेलने के लिये तैयार थे। अरूण मेरे नितम्‍बों को बड़े प्‍यार से सहलाने लगे, मैं उनके होठों को फिर ठोड़ी को, गर्दन को, उनकी चौड़ी छाती को चूमते हुए नीचे की ओर बढ़ने लगी।

    मैं उनकी नाभि में अपनी जीभ घुसाकर चाटने लगी, उनका लिंग मेरी ठोड़ी से टकराने लगा। मैंने खुद को थोड़ा सा और नीचे सरकाकर

    अरूण के लिंग को अपनी दोनों होठों के बीच में दबोच लिया। अब मैं खुल कर मुख मैथुन करने लगी।

    अरूण को भी बहुत मजा आ रहा था, ये उनके मुँह ने निकलने वाली सिसकारियाँ बयान कर रही थी। परन्‍तु मेरी योनि में तो फिर से खुजली होने लगी। मजबूर होकर मुझे फिर से अरूण के ऊपर 69 की अवस्‍था में आना पड़ा। ताकि वो मेरी योनि को कुछ आराम दे सकें।

    वो तो थे भी अपने खेल में माहिर। उन्‍होंने तुरन्‍त अपनी जीभ से मेरी मदनमणि को सहलाना शुरू कर दिया। धीरे धीरे मेरी योनि के अन्‍दर जीभ ठेल दी और अन्‍दर तक योनि की सफाई का प्रयास करने लगे।

    आह. हम दोनों तो पुन: आनन्‍दविभोर थे।

    अरूण रति क्रिया में मंझे हुए खिलाड़ी थे। जिसका परिचय वो पहली पारी में ही दे चुके थे। इस बार तो मुझे खुद को सिद्ध करना था। मैं बहुत ही मजे लेकर अरूण के कामदण्‍ड को चूस रही थी और उनकी दोनों गोलियों के साथ खेल भी रही थी। अरूण मेरी योनि में अपनी जीभ से कुरेदते हुए अपने दोनों हाथों को मेरे नितम्‍बों की दरार पर फिरा रहे थे। मुझे उनका यह करना बहुत ही अच्‍छा लग रहा था। "आह." तभी मैं दर्द से कराह उठी।

    उन्‍होंने अपनी तर्जनी उंगली मेरी गुदा में जो धकेल दी थी। मैं कूदकर बिस्‍तर से नीचे आ गई।

    अरूण ने पूछा, "क्‍या हुआ?"

    मैंने कहा, "आपने पीछे उंगली क्‍यों डाली? पता है कितना दर्द हुआ?"

    अरूण बोले, "इसका मतलब पीछे से बिल्‍कुल कोरी हो क्‍या?"

    मैंने अन्‍जान बनते हुए कहा, "छी:. पीछे भी कोई करता है भला?"

    अरूण बोले, "क्‍या यार? लगता है तुम्‍हारे लिये सैक्‍स का मतलब बस आगे डालना. और बस पानी निकालना ही है.?"

    "मतलब?" मैंने पूछा।

    अरूण बोले, "यार, कैसी बातें करती हो तुम? सैक्‍स सिर्फ पानी निकाल को सो जाने का नाम नहीं है। यह तो एक कला है, पूरा विज्ञान है इसमें, इसमें मानसिक और शारीरिक कसरत भी है और पूर्ण सन्‍तुष्टि भी, काम को पूर्ण आनन्‍द के साथ ग्रहण करोगी तभी सन्‍तुष्टि मिलेगी।"

    मैं तो उनका कामज्ञान सुनकर दंग थी। अभी तो उनका कामपुराण और भी चलता अगर मैं नीचे फर्श पर बैठकर उनका कामदण्‍ड अपने होठों से ना लगाती तो। अब तो उनका कामदण्‍ड भी अपना पूर्णाकार ले चुका था।

    तभी अरूण बिस्‍तर से खड़े हो गये और मुझे भी फर्श से खड़ा कर लिया। मुझको गले से लगाया और खींचते हुए ड्रेसिंग टेबल के पास ले गये। कमरे में लाइट जल रही थी हम दोनों आदमजात नंगे ड्रेसिंग के सामने खड़े थे। अरूण मुझे और खुद को इस अवस्‍था में शीशे में देखने लगे।

    मेरी निगाह भी शीशे की तरफ गई, इस तरह बिल्‍कुल नंगे इतनी रोशनी में मैंने खुद को कभी संजय के साथ भी नहीं देखा था। मैं तो शर्म से पानी पानी होने लगी। मैंने जल्‍दी से वहाँ से हटने की कोशिश की। पर अरूण को शायद मेरा वहाँ खड़ा होना अच्‍छा लग रहा था। वो तो जबरदस्‍ती मुझे वहीं पकड़कर चूमने चाटने लगे।

    मैं उनकी पकड़ ढीली करने की कोशिश करती पर वो मजबूती से पकड़कर मेरे स्‍तनों को वहीं आदमकद शीशे के सामने चूसने लगे। मैं शीशे में अपने भूरे रंग के कड़े हो चुके कुचाग्र पर बार बार उनकी जीभ की रगड़ लगते हुए देख रही थी, यह मेरे लिये बहुत ही रोमांचकारी था।

    मेरी शर्म धीरे धीरे खत्‍म होने लगी। अब मैं भी वहीं अरूण का साथ देने लगी तो उनको सीने से लगाकर अपने एक हाथ से उनका कामदण्‍ड सहलाने लगी। शीशे में खुद को ये सब करते देखकर एक अलग ही रोमांच उत्‍पन्‍न होने लगा। शर्म तो अब मुझसे कोसों दूर चली गई।

    अरूण ने भी मुझे ढीला छोड़ दिया। वो नीचे फर्श पर पालथी मारकर मेरी दोनों टांगों को खोलकर उनके बीच में बैठ गये। नीचे से अरूण ने मेरी यो‍नि को चाटना शुरू कर दिया। एक उंगली से अरूण मेरे भंगाकुर को सहेज रहे थे।

    "उईईईईईई." मेरे मुँह से निकला, मैं तो जैसे निढाल सी होने वाली थी, इतना रोमांच जीवन में पहली बार महसूस कर रही थी।

    मैंने नीचे देखा अरूण पालथी मार कर बैठे थे, उनका कामदण्‍ड तो जैसे ऊपर की ओर मुझे ही घूर रहा था। मैं भी अपने घुटने मोड़ कर वहीं शीशे के सामने अरूण की तरफ मुँह करके उनकी गोदी में जा बैठी।

    और "आहहहहहह.." उनका कामदण्‍ड पूरा का पूरा एक ही झटके में मेरे कामद्वार में प्रवेश कर गया।

    मैं असीम सुख महसूस कर रही थी। मैंने अपनी टांगों से अरूण की पीठ को जकड़ लिया। अरूण ने फिर से अपने मुँह में मेरे चुचूक को भर लिया। मेरे नितम्‍ब खुद-ब-खुद ही ऐसे ऊपर नीचे होने लगे जैसे किसी संगीत की ताल पर नृत्‍य कर रहे हों।

    अरूण भी मेरे चुचूक चूसते चूसते नीचे से मेरा साथ देने लगे। बिना किसी ध्‍वनि के ही पूरा संगीतमय वातावरण बन गया, कामसंगीत का. ! हम दोनों का पुन: एकाकार हो चुका था।

    मुझे लगा कि इस बार मैं पहले शहीद हो गई हूँ। अरूण का दण्‍ड नीचे से लगातार मेरी बच्‍चेदानी तक चोट कर रहा था। तभी मुझे नीचे से अरूण का फव्‍वारा फूटता हुआ महसूस हुआ। अरूण ने अचानक मुझे अपने बाहुपाश में जकड़ लिया और मेरी योनि में अपना काम प्रसाद अर्पण कर दिया।

    मैं लगातार शीशे की तरफ ही देख रही थी। अब मुझे यह देखना बहुत सुखदायी लग रहा था पर शरीर में जान नहीं थी, मैं वहीं फर्श पर लेट गई परन्‍तु अरूण इस बार उठकर बाथरूम गये, खुले दरवाजे से मुझे दिख रहा था कि उन्होंने एक मग में पानी भरकर अपने लिंग को अच्‍छे से धोया, तौलिये से पौंछा और बाहर आ गये।

    उनके चेहरे पर जरा सी भी थकान महसूस नहीं हो रही थी, उनको देखकर मुझे भी कुछ फूर्ति आई। मैं भी बाथरूम में जाकर अच्‍छी तरह धो पौंछ कर बाहर आई। घड़ी में देखा 3.15 बजे थे मैंने अरूण को आराम करने को कहा।
    वो मेरी तरफ देखकर हंसते हुए बोले, "जब जा रहा था तो जाने नहीं दिया। अब आराम करने को बोल रही हो अभी तो कम से कम 2 राउण्ड और लगाने हैं, आज की रात जब तुम्‍हारे साथ रूक ही गया हूँ तो इस रात का पूरा फायदा उठाना है।"

    अरूण की इस बात ने मेरे अन्‍दर भी शक्ति संचार किया, मेरी थकान भी मिटने लगी। मैंने फ्रिज में से एक सेब निकाला, चाकू लेकर उनके पास ही बैठकर काटने लगी।

    वो बोले, "मुझे ये सब नहीं खाना है।"

    मैंने कहा, "आपने बहुत मेहनत की है अभी और भी करने का मूड़ है तो कुछ खा लोगे तो आपके लिये अच्‍छा है।"

    अरूण बोले, "आज तो तुमको ही खाऊँगा बस।"

    सेब और चाकू को अलग रखकर मैं वापस आकर अरूण के पास बैठ गई। मेरे बैठते ही उन्‍होंने अपना सिर मेरी जांघों पर रखा और लेट गये। मैं प्‍यार से उनके बालों में उंगलियाँ फिराने लगी। पर वो तो बहुत ही बदमाश थे उन्‍होंने मुँह को थोड़ा सा ऊपर करके मेरे बांये स्‍तन को फिर से अपने मुँह में भर लिया। मैंने हंसते हुए छोटे से हो चुके उनके लिंग को हाथ में पकड़ कर मरोड़ते हुए पूछा, "यह थकता नहीं क्‍या?"

    अरूण बोले- थकता तो है पर अभी तो बहुत जान है अभी तो लगातार कम से कम 4-5 राउण्ड और खेल सकता है तुम्‍हारे साथ।

    "पर मैंने तो कभी भी एक रात में एक से ज्‍यादा बार नहीं किया इसीलिये मुझे आदत नहीं है।" मैंने बताया।

    अरूण ने तुरन्‍त ही अपने मिलनसार व्‍यवहार का परिचय देते हुए कहा, "तब तो तुम थक गई होंगी तुम लेट जाओ, मैं तुम्‍हारी मालिश कर देता हूँ ताकि तुम्‍हारी थकान मिट जाये और अब आगे कुछ नहीं करेंगे।"

    मेरे लाख मना करने पर भी वो नहीं माने खुद उठकर बैठ गये और मुझे बिस्‍तर पर लिटा दिया। ड्रेसिंग टेबल से तेल लाकर मेरी मालिश करने लगे। इससे पहले मेरी मालिश कभी बचपन में मेरी माँ ने ही की होगी। मेरी याद में तो पहली बार कोई मेरी मालिश कर रहा था, वो भी इतने प्‍यार से !

    मैं तो भावविभोर हो गई, मेरी आँखें नम होने लगी, गला रूंधने लगा।

    अरूण ने पूछा, "क्‍या हुआ?"

    "कुछ नहीं।" मैंने खुद को सम्‍भालते हुए कहा और अरूण के साथ मालिश का मज़ा करने लगी, मेरी बाजू पर, स्‍तनों पर, पेट पर, पीठ पर, नितम्‍बों पर, जांघों पर, टांगों पर और फिर पैरों पर भी अरूण तन्‍मयता से मालिश करने लगे।

    वास्‍तव में मेरी थकान मिट गर्इ अब तो मैं खुद ही अरूण के साथ और खेलने के मूड़ में आ गई। आज मैं अरूण के साथ दो बार एकाकार हुई और दोनों बार ही अलग अलग अवस्‍था में। मेरे लिये दोनों ही अवस्‍था नई थी, अब कुछ नया करना चाहती थी पर अरूण को कैसे कहूँ समझ नहीं आ रहा था। पर मैं अरूण के अहसानों का बदला चुकाने के मूड में थी, मैं तेजी से दिमाग दौड़ा रही थी कि ऐसा क्‍या करूँ जो अरूण को बिल्‍कुल नया लगे और पूर्ण सन्‍तुष्टि भी दे।

    सही सोचकर मैंने अरूण के पूरे बदन को चाटना शुरू कर दिया। अरूण को मेरी यह हरकत अच्‍छी लगी शायद, ऐसा मुझे लगा। वो भी अपने शरीर का हर अंग मेरी जीभ के सामने लाने का प्रयास करने लगे। धीरे धीरे मैं उनके होंठों को चूसने लगी पर मैं तो इस खेल में अभी बच्‍ची थी और अरूण पूरे खिलाड़ी। उन्‍होंने मेरे होठों को खोलकर अपनी जीभ मेरी जीभ से भिड़ा दी। ऐसा लग रहा था जैसे हम दोनों की जीभें ही आपस में एकाकार कर रही हैं।

    मैं अरूण के बदन से चिपकती जा रही थी बार-बार। मेरा पूरा बदन तेल से चिकना था अरूण के हाथ भी तेल से सने हुए थे। अरूण ने अपनी एक उंगली से मेरी योनि के अन्‍दर की मालिश भी शुरू कर दी। मेरी योनि तो पहले ही से गीली महसूस हो रही थी, उनकी चिकनी उंगली योनि में पूरा मजा दे रही थी, उनकी उंगली भी मेरे योनिरस से सन गई।

    उन्‍होंने अचानक उंगली बाहर निकाली और मेरे नितम्‍बों के बीच में सहलाना शुरू कर दिया।

    चिकनी और गीली उंगली से इस प्रकार सहलाना मुझे बहुत अच्‍छा लग रहा था। अचानक "हाययय. मांऽऽऽऽऽ. ऽऽऽऽ." फिर से वो ही हरकत !

    उन्‍होंने फिर से अपनी उंगली मेरी गुदा में घुसाने का प्रयास किया, मैं कूद कर दूर हट गई।

    मैंने कहा, "आप अपनी शरारत से बाज नहीं आओगे ना.?"

    अरूण बोले, "मैं तो तुमको नया मजा देना चाहता हूँ। तुम साथ ही नहीं दे रही हो।"

    मैंने कहा, "साथ क्‍या दूँ? पता है एकदम कितना दर्द होता है !"

    "तुम साथ देने की कोशिश करो। थोड़ा दर्द तो होगा, पर मैं वादा करता हूँ जहाँ भी तुमको लगेगा कि इस बार दर्द बर्दाश्‍त नहीं हो रहा बोल देना मैं रूक जाऊँगा।" अरूण ने मुझे सांत्‍वना देते हुए कहा।

    मैं गुदा मैथुन को अपने कम्‍प्‍यूटर पर कई बार देख चुकी थी। मेरे अन्‍दर भी नया रोमांच भरने लगा पर दर्द के डर से मैं हामी नहीं भर रही थी। हां, कुछ नया करने की चाहत जरूर थी मेरे अन्‍दर, यही सोचकर मैंने अरूण का साथ देने की ठान ली।

    अरूण ने मुझे बिस्‍तर पर आगे की ओर इस तरह झुकाकर बैठा दिया कि मेरी गुदा का मुँह सीधे उनके मुँह के सामने खुल गया। अब अरूण मेरे पीछे आ गये, उन्‍होंने ड्रेसिंग से बोरोप्‍लस की टयूब उठाई और मेरी गुदा पर लगा कर दबाने लगी। टयूब से क्रीम निकलकर मेरी गुदा में जाने लगी।अरूण बोले, "जैसे लैट्रीन करते समय गुदा खोलने का प्रयास करती हो ऐसे ही अभी भी गुदा को बार बार खोलने बन्‍द करने का प्रयास करो ताकि क्रीम खुद ही थोड़ी अन्‍दर तक चली जाये।" क्रीम गुदा में लगने से मुझे हल्‍की हल्‍की गुदगुदी होने लगी। मैं गुदा को बार-बार संकुचित करती और फिर खोलती, अरूण गुदाद्वार पर अपनी उंगली फिरा रहे थे जिससे गुदगुदी बढ़ने लगी, कुछ क्रीम भी अन्‍दर तक चली गई।

    इस बार जैसे ही मैंने गुदा को खोला, अरूण ने अपनी उंगली क्रीम के साथ मेरी गुदा में सरका दी। जैसे ही मैं गुदा संकुचित करने लगी मुझे उंगली का अन्दर तक अहसास हुआ पर तब तक उनकी उंगली इतनी चिकनी हो गई थी कि गुदा में हल्‍के हल्‍के सरकने लगी। दर्द तो हो रहा था पर चिकनाहट का भी कुछ कुछ असर था मजा आने लगा था।

    मैं भी तो कुछ नया करने के मूड में थी। अरूण ने एक उंगली मेरी गुदा में और दूसरी मेरी योनि में अन्‍दर बाहर सरकानी शुरू कर दी। धीरे-धीरे मैं तो आनन्‍द के सागर में हिचकौले खाने लगी।

    कुछ सैकेण्‍ड बाद ही अरूण बोले, "अब तो कोई परेशानी नहीं है ना?"

    मैंने सिर हिलाकर सिर्फ 'ना' में जवाब दिया। बाकि जवाब तो अरूण को मेरी सिसकारियों से मिल ही गया होगा। उन्‍होंने फिर से क्रीम मेरी गुदा में लगाना शुरू किया। मैं खुद ही बिना कहे एक गुलाम की तरह उनकी हर बात समझने लगी थी। मैंने भी अपनी गुदा को फिर से संकुचित करके खोलना शुरू कर दिया। इस बार अचानक मुझे गुदा में कुछ जाने का अहसास हुआ मैंने ध्‍यान दिया तो पाया कि अरूण की दो उंगलियाँ मेरी गुदा में जा चुकी थी। फिर से वही दर्द का अहसास तो होने लगा। पर आनन्‍द की मात्रा दर्द से ज्‍यादा थी। तो मैंने दर्द सहने का निर्णय किया।

    उनकी उंगलियाँ मेरी गुदा में अब तेजी से चलने लगी थी।

    ये क्‍या..? मैं तो खुद ही नितम्‍ब हिला हिला कर गुदा मैथुन में उनका साथ देने लगी।

    वो समझ गये कि अब मुझे मजा आने लगा। उन्‍होंने अपना लिंग मेरी तरफ करके कहा कि अपने हाथ से इस पर क्रीम लगा दो। मैंने आज्ञाकारी दासी की तरह उनकी आज्ञा का पालन किया।

    लिंग को चिकना करने के बाद वो फिर से मेरे पीछे आ गये, मुझसे बोले, "अब मैं तुम्‍हारे अन्‍दर लिंग डालने की कोशिश करता हूँ। जब तक बर्दाश्‍त कर सको ठीक, जब लगे कि बर्दाश्‍त नहीं हो रहा है बोल देना।"मैंने 'हाँ' में सिर हिला दिया।

    अरूण मेरे पीछे आये और अपना कामदण्‍ड मेरी गुदा पर रखकर अन्‍दर सरकाने का प्रयास करने लगे। मैंने भी साथ देते हुए गुदा को खोलने का प्रयास किया। लिंग का अगला सिरा यानि सुपारा धीरे धीरे अन्‍दर जाने लगा। कुछ टाइट जरूर था पर मुझे कोई भी परेशानी नहीं हो रही थी।

    एक इंच से भी कुछ ज्‍यादा ही शायद मेरी गुदा में चला गया था। मुझे कुछ दर्द का अहसास हुआ, "आहहह." मेरे मुँह से निकली ही थी. कि अरूण रूक गये, पूछने लगे, "ठीक हो ना?"

    मैंने पुन: 'हाँ' में सिर हिला दिया और दर्द बर्दाश्‍त करने का प्रयास करने लगी। मैंने पुन: गुदा को खोलने का प्रयास किया क्‍योंकि संकुचन के समय तो लिंग अन्‍दर जाना सम्‍भव नहीं हो पा रहा था बस एक सैकेण्‍ड के लिये जब गुदा को खोला तभी कुछ अन्‍दर जा सकता था। जैसे ही अरूण को मेरी गुदा कुछ ढीली महसूस हुई उन्‍होंने अचानक एक धक्‍का मारा। मेरा सिर सीधा बिस्‍तर से टकराया, मुँह से 'आहहहहह.' निकली। तब तक अरूण अपने दोनों हाथों से मेरे स्‍तनों को थाम चुके थे। मुझे बहुत दर्द होने लगा था।

    अरूण मेरे चुचूक बहुत ही प्‍यार से सहलाने लगे और बोले, "जानेमन, बस और कष्‍ट नहीं दूँगा।"

    मुझे उनका इस प्रकार चुचूक सहलाना बहुत ही आराम दे रहा था, गुदा में कोई हलचल नहीं हो रहा थी, दर्द का अहसास कम होने लगा। मुझे कुछ आश्‍वस्‍त देखकर अरूण बोले, "देखो, तुमने तो पूरा अन्‍दर ले लिया।"

    मैंने आश्‍चर्य से पीछे देखा. अरूण मेरी ओर देखकर मुस्‍कुरा रहे थे। पर लगातार मेरे वक्ष-उभारों से खेल रहे थे। अब तो मुझे भी गुदा में कुछ खुजली महसूस होने लगी। मैंने खुद ही नितम्‍बों को आगे पीछे करना शुरू कर दिया। क्रीम का असर इतना था कि मेरे हिलते ही लिंग खुद ही सरकने लगा। अरूण भी मेरा साथ देने लगे। मैं इस नये सुख से भी सराबोर होने लगी।

    दो चार धक्‍के हल्‍के लगाने के बाद अरूण अपने अन्‍दाज में जबरदस्‍त शॉट लगाने लगे। मुझे उनके हर धक्‍के में टीस महसूस होती परन्‍तु आनन्‍द की मात्रा हर बार दर्द से ज्‍यादा होती। इसीलिये मुझे कोई परेशानी नहीं हो रही थी। अरूण ने मेरे वक्ष से अपना एक हाथ हटाकर मेरी योनि में उंगली सरका दी। अब तो मुझे और भी ज्‍यादा मजा आने लगा। उनका एक हाथ मेरे चूचे पर, दूसरा योनि में और लिंग मेरी गुदा में।मैं तो सातवें आसमान में उड़ने लगी। तभी मुझे गुदा में बौछार होने का अहसास हुआ। अरूण के मुँह से डकार जैसी आवाज निकली। मेरी तो हंसी छूट गई, "हा. हा. हा. हा. हा. हा."

    मुझे हंसता देखकर अपना लिंग मेरी गुदा से बाहर निकालते हुए अरूण ने पूछा, "बहुत मजा आया क्‍या?"

    ने हंसते हुए कहा,"मजा तो आपके साथ हर बार ही आया पर मैं तो ये सोचकर हंसी कि आपका शेर फिर से चूहा बन गया।"

    मेरी बात पर हंसते हुए अरूण वहाँ से उठे और फिर से बाथरूम में जाकर अपना लिंग धोने लगे। मैं भी उनके पीछे-पीछे ही बाथरूम में गई और शावर चला कर पूरा ही नहाने लगी.

    अरूण से साबुन मल-मल कर मुझे अच्‍छी तरह न‍हलाना शुरू कर दिया. और मैंने अरूण को.

    मैं इस रात को कभी भी नहीं भूलना चाहती थी। अरूण ने बाहर झांककर घड़ी को देखा तो तुरन्‍त बाहर आये। 4.50 हो चुके थे।

    अरूण ने बाहर आकर अपना बदन पौंछा और तेजी से कपड़े पहनने लगे।

    मैंने पूछा, "क्‍या हुआ?"

    अरूण बोले, "दिन निकलने का समय हो गया है। कुछ ही देर में रोशनी हो जायेगी मैं उससे पहले ही चले जाना चाहता हूँ। ताकि मुझे यहाँ आते-जाते कोई देख ना पाये।"

    मैंने बोला, "पर आप थक गये होंगे ना, कुछ देर आराम कर लो।" पर अरूण ने मेरी एक नहीं सुनी और जाने की जिद करने लगे। मुझे उनका इस तरह जाना बिल्‍कुल भी अच्‍छा नहीं लग रहा था। पर उनकी बातों में मेरे लिये चिन्‍ता थी। वो मेरा ख्‍याल रखकर ही से सब बोल रहे थे। उनको मेरी कितनी चिन्‍ता थी वो उसकी बातों से स्‍पष्‍ट था।

    वो बोले, "मैं नहीं चाहता कि मुझे यहाँ से निकलते हुए कोई देखे और तुमसे कोई सवाल जवाब करे, प्‍लीज मुझे जाने दो।"

    मेरी आँखों से आँसू टपकने लगे, मुझे तो अभी तक कपड़े पहनने का भी होश नहीं था, अरूण ने ही कहा- गाऊन पहन लो, मुझे बाहर निकाल कर दरवाजा बन्‍द कर लो।

    मुझे होश आया मैंने देखा. मैं तो अभी तक नंगी खड़ी थी। मैंने झट से गाऊन पहना और अरूण को गले से लगा लिया, मैंने पूछा, "कब अगली बार कब मिलोगे?"

    अरूण ने कहा, "पता नहीं, हाँ मिलूँगा जरूर !" इतना बोलकर अरूण खुद हर दरवाजा खोलकर बाहर निकल गये।

    मैं तो उनको जाते ही देखती रही। उन्‍होंने बाहर निकलकर एक बार चारों तरफ देखा, फिर पीछे मुड़कर मेरी तरफ देखा और हाथ से बॉय का इशारा किया बस वो निकल गये. मैं देखती रही. अरूण चले गये।

    मैं सोचने लगी। सैक्‍स एक ऐसा विषय है जिसमें दुनिया के शायद 99.99 प्रतिशत लोगों की रूचि है। फर्क सिर्फ इतना है कि पुरूष तो कहीं और कैसे भी अपनी भड़ास निकाल लेता है। पर महिलाओं को समाज में अपनी स्थिति और सम्‍मान की खातिर अपनी इस इच्‍छा को मारना पड़ता है परन्‍तु जब कभी कोई ऐसा साथी मिल जाता है जहाँ सम्‍मान भी सुरक्षित हो और प्रेम और आनन्‍द भी भरपूर मिले तो महिला भी खुलकर इस खेल को खुल कर खेल कर आनन्द प्राप्त करना चाहती है।

    वैसे भी दुनिया में सबकी इच्‍छा, 'जिसके पास जितना है उससे ज्‍यादा पाने की है' यह बात सब पर समान रूप से लागू होती है। अगर सही मौका और समाज में सम्‍मान खोने का डर ना हो तो शायद हर इंसान अपनी इच्‍छा को बिना दबाये पूरी कर सकता है। अरूण के बाद मेरी बहुत से लोगों से चैट हुई पर अरूण जैसा तो कोई मिला ही नहीं इसीलिये शायद 2-4 बार चैट करके मैंने खुद ही उसको ब्‍लॉक कर दिया।

    मेरे लिये वो रात एक सपना बन गई। ऐसा सपना जिसके दोबारा सच होने का इंतजार मैं उस दिन से कर रही हूँ। मेरी अब भी अरूण से हमेशा चैट होती है, दो-चार दिन में फोन पर भी बात होती है पर दिल की तसल्‍ली नहीं होती। भला कोई बताये इसमें मेरे दिल का क्‍या कसूर.????
     
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